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कविता

धरती और कथा

रविकांत


कोई नया उद्योग चाहता हूँ
खँगालता हूँ हवा को
तारों को
फिर जाता हूँ समीप धरती के
आधार प्रदायिनी है धरती
नया काम यों शुरू होता है

हर कथा में आती है धरती
धरती पर उगती है कथा
पसरी होती है धरती कथा भर में

धरती में छुपी है संपदा
शब्द खने जाते हैं
(लगभग शब्दशः)
मिट्टी में मिलती हुई सभ्यताएँ
मिट्टी से उग रही हैं

 


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