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कविता

गाँठ

रविकांत


काँपती सुइयों पर बैठा समय
तीन टाँगों पर पटपटाता हुआ पंखा
और उनके बीच
खामोश धड़कन अनंत

प्रेम और कृपा करते हुए
डरता हूँ
उन सभी घटनाओं से
जो लगातार घट रही हैं

निरंतर साँस ले रहे हो तुम, मैं
धुआँ उगलती हुई चिमनियाँ
गर्म हैं वर्षों से
किसके लिए?

दिन कटते नहीं
टपकते हैं
वर्ष बीतते नहीं
झर जाते हैं
और
जीता चला जा रहा हूँ मैं भी
तमाम प्रश्नों के उत्तर जुटाए बिना

 


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हिंदी समय में रविकांत की रचनाएँ