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कविता

इस भूख में

रविकांत


वही खेत चाहिए
जिसके बालों की चमक
मेरी नींद में द्वंद्व मचाती है

वह नहीं
खिला-खिला
चाहिए नहीं

खिंचाव, जिससे
जल खींच कर
अपनी पत्तियों में हरियाली भर सकूँ
गँदले पानी को पचाने वाली कोशिकाएँ
इस भूख में...

तुम्हारे आगे भरता हुआ
झर रहा हूँ तुम्हारे ही आगे
तुम समझते हो?
- नीचे जमीन, कितना नीचे है!

 


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