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कविता

अंतरण

कुमार अनुपम


तुहें छूते हुए
मेरी उँगलियाँ
भय की गरिमा से भींग जाती

कि तुम
एक बच्चे का खिलौना हो

तुम्हारा स्पर्श
जबकि लपेट लेता है मुझे जैसे कुम्हड़े की वर्तिका
लेकिन तुम्हारी आँखों में जो नया आकाश है इतना शाली
कि मेरे प्रतिबिंब की भी आहट
भंग कर सकती है तुम्हारी आत्म-लीनता

कि तुम्हारा वजूद
दूध की गंध है

एक माँ के संपूर्ण गौरव के सा
अपनाती हो
तो मेरा प्रेम
बिलकुल तुम्हारी तरह हो जाता है

                                  ममतामय।


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