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कविता

बंगाल

कुमार अनुपम


समुद्र

 

क.

 

दुख...

 

समुद्र...

 

सम  उ  द  र

तुम्हारा पास पाना चाहता हूँ

 

ख.

 

समुद्र

तुम्हारा साथ पाकर

दिशाएँ अपनी पहचान खो बैठी हैं

 

यूँ कहता तो नहीं

किंतु

फैली इस धुंध में

कहता हूँ कि व्यस्त विस्तार तुम्हारा

असीम है फिलवक्त...

 

एक कुतूहल

तुम्हारे पार से समुद्र

उगता हुआ देखना चाहता है कुछ...

 

 

बंगाल

 

क.

 

बंगाल       देखा

समुद्र        देखा

 

पहली बार

बंगाल और समुद्र          देखा

बंगाल और समुद्र को

एक दूसरे में डूबा हुआ देखा...

 

ख.

 

(मैं सूर्यास्त शब्द को काट

कविता को ठीक करना चाहता हूँ।

                                    - विनोद कुमार शुक्ल)

 

मेरे कस्बे में जब उतरा था दल मूर्तिकारों का

मैंने बंगाल को सुना था

 

दीघा के तट पर

देखा मैंने बंगाल

                        को उगते हुए देखा

 

हावड़ा के झूले पर

                           झूले पर हावड़ा को झूलते हुए

भरते हुए पेग की साँस

शांतिनिकेतन        नंदनपैलेस

मालदह      वर्धमान

 

रोमांचित     व्यस्त बंगाल

बंगाल       मस्त बंगाल

 

देखा

नावों के नारंगी मस्तूल-सा

                        जोर पर हवा के मुड़ता हुआ बंगाल

 

दिल्ली     गुजरात    मुंबई

और जाने कहाँ की रेलों में

लुकता भागता हुआ

 

अस्त होता हुआ डायमंडहॉर्बर पर

                          सोनागाछी पर नष्ट होता हुआ बंगाल

 

देर रात

सुना न जाता था

समुद्र का छाती पीट पीट कर चीखना -

 

बं  गा  ल...बं  गा  ल...

बं  गा  ल...बं  गा  ल...


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