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कविता

हवाओ

कुमार अनुपम


हवाओ आओ

चली आओ बच्चे-सी दौड़ती

मेरे आरपार चली जाओ खिलखिलाती

छू आओ

मेरी नवागत उच्छवास का ‘पाहला’*

 

आओ हवाओ आओ

सहलाओ मेरी पलकें

भुट्टे की मांसल गंध

और रेशों की शीतल छुवन से जो मुझे

रोमांच से भर देती है

 

आओ गंभीर जवानी की पदचाप की तरह

कर दो सराबोर

मेरी एक एक कोशिका

भिगोओे चिड़ियों के कलरव से मेरा पोर पोर

जो तब्दील हो चुका है

सिर्फ शोर में

 

आओ आओ हवाओ

मेरी शिराओं में जम रहा है कार्बन

आओ और समेट ले जाओ सारा अवसाद

जैसे अपनी अदृश्य रूमाल से पोछ देती हो

पसीना और कालिख और थकान

 

हवाओ

मेरी जमीन की हवाओ

फावड़े-सा बैठा हूँ मैं

बस उठने-उठने की लय साधता!

 

* पाहला : कबड्डी के खेल में बनाए जाने वाले दो छोर।


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