गाँव में बारिश कुछ और होती है...
टप-टप, टिप-टिप.. झर-झर... खिड़की से झाँकते हुए आँख बंद भी कर लूँ तो आवाजें दस्तक देती रहती हैं। इस बार मानसून दिल्ली पर कुछ ज्यादा मेहरबान है। पिछले तीन सालों से तो बारिश के लिए तरसता रहता था। गाँव की बारिश याद आती थी जो एक बार शुरू होने पर कई दिनों तक सरोबार कर देती थी। स्कूल की छुट्टियाँ हो जाती थीं क्योंकि खपरैल की छतवाले स्कूल के अन्दर हर कमरे में एक तालाब मौजूद होता था... और अगर ज्यादा बरसात हो तो गाँव और स्कूल के बीच की नदी चढ़त-चढ़ते पुल के ऊपर तक आ जाती थी... बरसात में घर से छपा-छप कर निकलना, पानी से खेलना, बरसाती कीड़ों से बचना, अँधेरा होने से पहले खाना खा लेना.. जामुन खाने के लिए नदी किनारे जाना.. घर की टपकती हुई छत के नीचे कोई सूखा कोना तलाश कर वहाँ खटिया डाल कर सोने की कोशिश करना, और मन ही मन घबराना, यह सोच कर कि अपनी मच्छरदानी मच्छरों से तो बचा सकती है लेकिन नागदेवता अगर पधार गए तो क्या होगा?

और पकौड़े तो जीवन का अभिन्न अंग होते थे... और जब बरसात खात्मे की ओर होती तो, ककड़ी (खीरा) और अपने बाड़े के भुट्टे सेंक कर खाना..साथ ही दूसरों के बाड़े से चुराना... इस सब मजे के साथ ही आती थीं परेशानियाँ... कीचड़, कीचड़ और कीचड़... स्कूल जाते समय ट्रकवाले सफेद यूनिफॉर्म का कबाड़ा करते हुए चले जाते थे... शाम को इतने कीड़े निकलते कि खाना खाना, पढ़ना, बैठना मुश्किल! छत तो टपकती ही थी, साथ ही सब लकड़ियाँ गीली हो जाने से चूल्हा जलाना दूभर हो जाता था.. खैर अपन तो ठहरे मनमौजी, ये सब चिंता माँ-पिताजी के सुपुर्द कर मस्ती करने निकल पड़ते... तब तक कीचड़ में खेल-कूद जब तक माँ कान पकड़ कर वापस न ले आए... अब ना गाँव साथ है, ना ही खेत के भुट्टे, ना नदी है न स्कूल लेकिन जब भी सुनता हूँ ये टिप-टप, और देखता हूँ कि आसमान से उतरते हुए पानी ने एक झीना-सा जाल फैला दिया है, जब सोंधी-सोंधी गंध उठती है, जब आँधी चलती है, तो अनायास मूड अच्छा हो जाता है, ये जानते हुए कि इस बारिश में वो ताकत नहीं जो जिंदगी को बचपन-सा बना दे।
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