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सार सार को गहि रहें

विजया सती


हम भारतीय न जाने किस मिट्टी के बने हैं! बहुत बार बहुतों को यह कहते हुए सुना। शायद इसका कारण हमारे बहुत-से गुण और बहुत-से अवगुण दोनों ही हैं। हमारी सादगी और सलज्जता हमें अलग बनाती है, तो हमारी चतुराई और चालाकी भी। हम अपना नुकसान करने की हद तक ईमानदार हो सकते हैं तो दूसरे को पूरी तरह तबाह कर देने की हद तक बेईमान भी। एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह - भले भी हम बुरे भी हम, पर समझना न किसी से कम का अंदाज भी निराला है!

इसलिए बहुत आनंदित हुआ मन जब विदेश में हंगेरियन छात्र ने कहा कि वह अपना ब्लॉग लिखता है - इंडियाज़ इंडिया। यानी भारत भारत है - मैंने ध्वनि निकाली - अपने भारत जैसा कोई नहीं - इनक्रेडिबल इंडिया! इठलाने का मौका तो मिला! फिर सुना - ओनली थिंग सर्टेन इन इंडिया इज़ अन्सर्टेनिटी! अब हँसूँ या दुखी हो लूँ? चलो, इसे भी सही 'स्पिरिट' में ही लेती हूँ - क्या नुकसान है। जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं, भारतीय दर्शन का निचोड़ कुछ-कुछ इसी ओर ले जाता है - मोह न करो, दुनिया फानी है, आनी-जानी है।

रंग-बिरंगे 'इनक्रेडिबल इंडिया' पोस्टर देख आह्लादित होता मन विदेश में जहाँ कहीं हिन्दी भाषी लोगों से मिला, तो जैसे लघु भारत का साक्षात्कार कर बाग-बाग होता रहा। जब सुदूर स्कैंडिनेवियन देश डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में लंबे अरसे से बस गए व्यवसायी संधू जी ने अपनी शायरी में सुनाया कि 'मैं निकल तो आया हूँ दूर देश से अपने, मगर दिल को साथ नहीं लाया' तो भारत का मान मेरे लिए और बढ़ गया। इसलिए संधू जी की शायरी की अगली पंक्तियाँ भी स्मृति में बनी रहीं - 'टूटा हुआ मकान महल में तब्दील हो गया लेकिन / उस टूटे हुए मकान की छत के नीचे /बार बार भीग जाना मुझे बहुत याद आया! सोने की थाली में खा सकता हूँ मैं आज खाना / मगर मेरी हर फरमाइश पे / माँ का आँसू बहाना बहुत याद आया!

'अपने अनुभवों से हम नित नूतन होते जाते हैं' - कहीं पढ़ा था। संस्कृत का यह शब्द-विधान भी पढ़ा था - कूप-मंडूक, जिसका शाब्दिक अर्थ है - कुँए का मेढक और निहितार्थ है - अल्प ज्ञानी, सीमित ज्ञान वाला। कहने में कोई हर्ज नहीं कि पहली बार देश से बाहर जाने वाले सीधे-सरल भारतीय के लिए पश्चिम एक नया अनुभव होता है। हम दिल्लीवासियों के लिए मेट्रो का सफर अब नया नहीं रह गया, फिर भी विदेशों में मेट्रो का जाल एकदम से समझ नहीं आता, जबकि यहाँ सब लोग मानचित्र हाथ में लिए अपनी दिशा में अग्रसर होते रहते हैं। अपने देश के बाहर रह कर ही मैंने जाना कि यहाँ की व्यवस्था, अनुशासन, औपचारिक शिष्टता जीवन को सही तरह से जीने में मदद अवश्य करती है। व्यवस्था और अनुशासन की भूमिका को सार्वजनिक वाहनों में यात्रा करते हुए देखा। यह जनसंख्या कम होने का प्रभाव भी है, पर सबसे ऊपर है इस व्यवस्था का अनुशासन बनाए रखने का माद्दा। यहाँ कोई व्यक्ति गलत जगह से सड़क पार नहीं करता, इसलिए दुर्घटनाएँ कम होती हैं। कूड़ा या सिगरेट के टुकड़े फेंकने के लिए जो जगह नियत है, वे ज्यादातर वहीं डाले जाते हैं। यहाँ की शिष्ट-औपचारिकता जीवन में बहुत-सी दखलंदाजी को रोकने में कारगर है। आप अपने किसी भी काम को बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं क्योंकि बिना समय लिए या दिए असमय कोई भी आपके द्वारे प्रकट न होगा। यदि समय तय किया है तो सही समय पर मिलना होगा।

'आप कौन-सी भाषाएँ जानते हैं'- के प्रत्युत्तर में गर्व से - हिन्दी, इंग्लिश, संस्कृत, पंजाबी - लिखने वाली मैं जब भारत से बाहर आई, तो एक इंग्लिश का सहारा था। किन्तु बुदापैश्त में वह भी छूटा, क्योंकि यहाँ हंगेरियन भाषा ही मुख्य है। सब जगह, सब कुछ इसी भाषा में दर्ज है। देश के युवा भी अधिकतर अंग्रेजी नही बोलते। जिस तरह भारत आने वाले विदेशी 'नमस्ते धन्यवाद' सीख कर जाते हैं, उसी तरह भारतीय भी कुछ जानकारी लेकर आते ही होंगे, मेरे पास भी कुछ थी, पर बुदापैश्त में निरंतर रहते हुए वह अपर्याप्त साबित होने लगी। धीरे-धीरे अभ्यास और अंदाज से इस भाषा की जानकारी सँजोती रही कि कोज़ोनोम यहाँ का धन्यवाद है और विस्लात अनौपचारिक विदा, विराग यहाँ फूल हैं और पतिका दवा की दूकान। युनापोत यहाँ का नमस्कार है और नेम-इगेन-यो शब्द नहीं, हाँ और ठीक के लिए प्रयोग किए जाते हैं। विश्वविद्यालय में पढ़ाने के दौरान मुझे यह जानने का अवसर मिला कि यहाँ विद्यार्थी बहुत-सी भाषाएँ सीखते हैं। कक्षा में एक छात्रा हिन्दी और संस्कृत के साथ-साथ जापानी और अरबी भाषा भी सीखती है, हंगेरियन उसकी मातृभाषा है ही और अंग्रेजी भी वह जानती है। और ऐसा करने वाली वह अकेली ही नहीं है। मुझे लगा कि शायद हमारे देश में भाषा सीखने की सजगता इतनी अधिक नहीं है।

कुछ अच्छा तो कुछ कम अच्छा! हमारे देश में कक्षा का जो अनुशासन है, यहाँ उसका रूप सर्वथा बदला हुआ है। सबसे पहले तो अध्यापक-अध्यापिका सर या मैडम नहीं हैं, हम विजया जी या मारिया जी हैं। दूसरी बात यह नई देखी कि अध्यापक पढ़ा रहे हैं, विद्यार्थी चाय या ठंडा पी रहे हैं। सर्दी लगी कपड़े पहन रहे हैं, गर्मी का अनुभव हुआ उतार रहे हैं।

निष्कर्ष यह कि देश में और विदेश में अच्छा और बुरा दोनों हैं। जरूरत इस बात की है कि हम "सार सार को गहि रहें" और "थोथा दें उड़ाय।"


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