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कविता

धूप-ताप

पुष्पिता अवस्थी


धूप
निचोड़ लेती है
देह के रक्त से पसीना

माटी से बीज
बीज से पत्ते
पत्ते से वृक्ष
और वृक्ष से
निकलवा लेती है - धूप
सबकुछ

धूप
सबकुछ सहेज लेती है
धरती से
उसका सर्वस्व
और सौंप देती है - प्रतिदान में
अपना अविरल स्वर्णताप
कि जैसे -
प्रणय का हो यह अपना
विलक्षण अपनापन

 


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