वह जो मन की चहचहाहट पर गुनगुनाता था मन की लहरों में डूबता-उतराता था पकता रहता था मन की आँच में वह जो चला गया एक दिन मन के घोड़े की रास थामे साँवले बादलों में न जाने कहाँ वह मैं ही था
विश्वास नहीं होता यह इसी जनम की बात है।
हिंदी समय में संजय कुंदन की रचनाएँ