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कविता

ब्रेस्ट कैंसर क्लीनिक

आर अनुराधा


एक :

वे औरतें
चुप हैं
कि डाक' साब
डिस्टर्ब न हो जाएँ
नाराज न हो जाएँ

दो :

एक मासूम-सा सवाल
"कहाँ से आती हैं आप?"
और फिर जुड़ते जाते हैं
तार से तार
जैसे जुड़ते हैं
ताश के पत्ते
एक से एक
पर गिरतीं नहीं उनकी तरह
एक पर एक
कोई गिरने को हो तो
दूसरी सँभालती है
तीसरी सँभालती है
कोई अपना दर्द बताती है
तो कोई उसे सहने-झँवाने का टोटका
किसी पर घर का बोझ है
तो कोई खुद घर पर
वे सब बनाती हैं मिलकर
एक दीवार
कीमोथेरेपी के अत्याचार के खिलाफ
होती हैं मजबूत
पाती हैं थोड़ी छाँव, थोड़ी राहत
उस दीवार की आड़ में
आखिर तो चलना उन्हें खुद ही है
उस दोपहरी में धूप-आँधी-बारिश में।
उनके आँचल को
टोहने-टटोलने की
कोई जरूरत नहीं
क्योंकि आँचल अब भी
उतना ही बड़ा है
समेटता है संसार भर की
स्मृतियाँ, आँसू, कमियाँ और अधूरापन
करता है सबको पूरा
एक से एक जोड़कर

तीन :

बाहर
और लोग बैठे हैं
वे बातें नहीं करते
कि उनके तार
जुड़ते नहीं आसानी से
उनके अपने झमेले हैं
चिंताएँ हैं
दुनिया है, तकलीफें हैं
इन सबसे बड़ी है
उनकी चुप

चार :

फिर वे सब
चले जाते हैं
ओ पी डी खत्म होने तक
दोपहर से शाम होने तक
बारी-बारी से
फिर मिलने के वादे के बिना
कौन जाने कब-कहाँ -
शायद अगले हफ्ते
तीन हफ्ते में
तीन महीने या
साल में
यहाँ या जाने कहाँ!

पाँच :

बेटी आई है दूर से
माँ का साथ देने
बेटा-पति काम पर हैं
थक गए हैं
या देख नहीं पाते इनके कष्ट
बेटी सब देखती-करती है
सँभाल कर क्लीनिक तक लाना
हड़बड़ी में, धक्कामुक्की में
डिस्काउंट में दवाएँ खरीदना
सावधानी से दवाएँ और पैसे माप-जोख कर
फिर लाइन में लगना
इंतजार करना बारी का
दूसरी के बैठने के लिए
सीट छोड़ना
वह सब सुनती-समझती है
डॉक्टर से पत्रिकाओं से इंटरनेट से
सर्जरी, रेडियोथेरेपी, कीमोथेरेपी
है क्या बला भला
जो उसे ही मारने पर उतारू हैं
जिसे बचाने का उनका मकसद ठहरा
पार करती है वह भी माँ के साथ
वह रासायनिक बाढ़
वो हथियार-औजार
वह मशीनी आग
घर आकर फिर -
बिस्तर ठीक कर देना चादर बदल देना
ताकि रहे माँ तरोताजा
अगली बार उठकर
अस्पताल जाने तक
खास बेस्वाद खाना बनाना
जबर्दस्ती खिलाना
और न खाते हुए देख पाना
माँ को
जिसने उसे बनाया
अपना खून देकर, दूध देकर
अपनी थाली का खाना
अपनी रजाई की गर्माहट
अपने हिस्से की नींद
अपने हिस्से के सपने देकर
वह देखती-करती है
माँ का लड़ना
उसे लड़ने के काबिल बनाए रखना
पूस की धूप का वो जो टुकड़ा
बस कुछ कदम आगे पड़ा है
उस तक पहुँचाती है
अपने हाथों की गुनगुनाहट से
माँ को नरमाते-गर्माते हुए

 


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