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कविता

हरी मिर्च - 2

सदानंद शाही


बंधुओ !
इक्कीसवीं सदी में जाने की हड़बोंग मची हुई है
मानो वह आ नहीं रही है -
हमीं उसमें घुसते चले जा रहे हैं
जैसे इक्कीसवीं सदी में जाना
घर बदलना हो।

सारी कीमती चीजें
बटोरी जा रही हैं -
मणियाँ और रत्न
सोना और चाँदी
बीमा के कागज
शेयर सर्टिफिकेट
और नई पुरानी पांडुलिपियाँ
यहाँ तक कि -
कुछ कवि वर्षों से बटोर रहे हैं प्रेमपत्र
इस अंदेशे में कि
अगली सदी में प्रेम रहे न रहे
इसलिए बचे रहें प्रेमपत्र,
सारी चीजें रखी जा रही हैं -
कपड़े-लत्ते
राशन-पताई
हल्दी-धनिया
आलू-प्याज-टमाटर
हरी मिर्च की ओर
किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा है।

मुझे डर है
इस राम हल्ले में कहीं छूट गई हरी मिर्च
तो अगली सदी
बेमजा हो जाएगी।

 


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