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कविता

तलुक्कुलतूर

सदानंद शाही


उत्तरी केरल का एक छोटा सा गाँव है
तलुक्कुलतूर

मालाबार पहाड़ियों के पार
बहती है एक हरी हरी नदी
उसी के किनारे
सारी दुनिया से बेखबर
बसा है
तलुक्कुलतूर

नारियल के झुरमुट
सुपारी के पेड़
काली मिर्च और इलायची की कच्ची गंध
जहाँ बिखरी हुई है
वहीं है
तलुक्कुलतूर

वहाँ रहती है अक्का
जो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से
देख लेती है -
भाषा और भूगोल के पार

अजनबी लोगों के लिए भी
झटपट तोड़ लाती है नारियल
पिलाती है पानी
खुशी से चमकने लगती हैं उसकी आँखें
दूर तक चलती है साथ
नदी के पार तक पहुँचाती है
और देर तक हाथ हिलाती खड़ी रहती है

उसके हिलते हुए हाथ
नाव की तरह दिखने लगते हैं

|जब भी देखता हूँ
किसी नदी में हिलती हुई नाव
बरबस याद आती है अक्का
और याद आता है
तलुक्कुलतूर।

 


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