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कविता

देवी का प्रतिमा विसर्जन

सदानंद शाही


अपनी ही प्रतिमा को छिन्न-भिन्न करती हुई
वह निकल आई है बाहर

अक्षत, चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य को तिलांजलि देकर

रोली, कुंकुम और रेशमी अंगवस्त्रम के माया जाल की
ऐसी-तैसी करते हुए

मंदिर के ऊँचे सिंहासन पर प्रस्तरीभूत श्रद्धास्पदता के
निष्प्राण भजन-कीर्तन को मीलों पीछे छोड़
विशिष्टता की चमक-दमक को चीरते हुए
उतर आई है
जीवन के ऊबड़-खाबड़ में

हाड़, मांस और रक्त की ऊष्मा से भरपूर
तेज साँस और धड़कती हुई छाती के साथ
महज दृश्य होने की नियति को धता बताते हुए

आ खड़ी हुई है
ऐन दर्शकों के बीच
दुनिया उसे अब दृश्य की तरह नहीं
चुनौती की तरह देख रही है।

 


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