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बाबू

राजकिशोर


उस दिन ऑफिस देर से पहुँचा था, पर अपने केबिन का दरवाजा खोलते ही मन खिल उठा। कुरसी पर बैठा बाबू बीड़ी फूँक रहा था। उसका हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था - बाल और घने, दाढ़ी-मूँछ बढ़ी हुई और उनके बीच तराशे हुए पतले होठों पर हलकी-सी, शाश्वत किस्म की प्रफुल्ल मुसकान। चेहरे पर पहले वाली बेचैनी नहीं, अबूझ शांति थी। यह हमारा बाबू था, जो करीब पाँच साल पहले अचानक दिल्ली छोड़ कर पता नहीं कहाँ लापता हो गया था।

उस दिन बाबू दिन भर मेरे साथ रहा। हम तरह-तरह की बातें करते रहे। रात को एक पूरे मुरगे को हमने शेअर किया और जम कर शराब पी। फिर मैं उसे उस ईसाई परिवार के यहाँ छोड़ आया, जहाँ वह ठहरा हुआ था। पाँच साल से वह झारखंड वहीं के एक गाँव में एक आदिवासी परिवार के साथ रह रहा था। बाबू के शब्दों में, 'बड़े मौज में हूँ। चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जिनके यहाँ रहता हूँ, उनके बच्चों को पढ़ा देता हूँ। गाँव के लोगों का भी कुछ छोटा-मोटा काम कर देता हूँ। रात को ढेर-सी शराब पी कर सो जाता हूँ। कभी-कभी दिन में भी एकाध गिलास ले लेता हूँ।' मैं उससे कहता रह गया कि बाबू, तुम अपनी प्रतिभा के साथ खिलवाड़ कर रहे हो, अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हो, दूसरों को भी गलत रास्ता दिखा रहे हो, पर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह ढीठ की तरह धीमे-धीमे मुसकराता रहा। जब मेरा हितोपदेश पूरा हो गया, तो वह नाटकीय अंदाज में बोला, 'माई डियर सर, यहाँ प्रतिभा की जरूरत किसे है? पहले मैं सार्थकता में खुशी खोज रहा था। अब खुशी में ही सार्थकता का अनुभव कर रहा हूँ।' मेरे मन में आया, काश, मैं उसके लिए कुछ कर पाता। लेकिन इतनी बड़ी दिल्ली जिसके लिए कुछ नहीं कर पाई, उसके लिए मैं क्या कर सकता था?

बाबू से मेरी मुलाकात नौ-दस साल पहले दिल्ली में ही हुई थी। लगा था कि रामविलास शर्मा या नामवर सिंह को उनकी युवावस्था में देख रहा हूँ। उन दिनों वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था। उसके शोध का विषय था - हिन्दी साहित्य में गृहस्थ रस। जब कोई उसे छेड़ता, तो वह कम से कम आधा घंटे तक गृहस्थ रस की अवधारणा पर बोलता रहता। उसका कहना था कि गृहस्थ रस शृंगार रस का परिपाक है। इसमें जीवन के सभी पहलू और अन्य सभी रस आ जाते हैं। उसने ठाना हुआ था कि वह लेक्चरर बनेगा और सिर्फ पढ़ेगा-लिखेगा, किसी लंद-फंद में नहीं पड़ेगा।

पर लेक्चरर बनाने वालों को बाबू पसंद नहीं आया। एक तो उसके नाम, श्यामल कांति, से यह स्पष्ट नहीं होता था कि वह किस जाति का है। दूसरे, यह भी स्पष्ट नहीं था कि वह यूपी का है या बिहार का। तीसरे, वह सिर्फ उन्हीं के साथ अदब से पेश आता था, जो अदब के लायक थे। जब तीन साल तक इंतजार करने के बाद किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय ने उसे नहीं पूछा, तो वह पत्रकारिता में चला आया। कुछ दिनों तक बड़े उत्साह में रहा, फिर चिड़चिड़ा होने लगा। हर दूसरे दिन बॉस से उसका झगड़ा हो जाता था। झगड़ा वह शुरू नहीं करता था। लेकिन उसके अधिकारियों को उसके जैसे सुयोग्य व्यक्ति का आफिस में होना ही खलता था। हमारे समय में प्रतिभावान होना खतरनाक है। सो हर तीसरे महीने वह एक नए दफ्तर में दिखाई देता।

अखबार छोड़ कर जब वह एक टीवी चैनल में गया, तो उसने वहाँ कमाल ही कर दिया। पहले महीने की तनख्वाह ले कर वह अपने हेड के पास गया और बोला - सर, इतने पैसे मुझसे हजम नहीं होंगे। मैं नौ घंटे की ड्यूटी में काम ही क्या करता हूँ। पाँच-सात छोटी-छोटी खबरें बना देता हूँ। इसके लिए दस हजार काफी हैं। बाकी पैसे आप लौटा लीजिए।

कुछ दिनों तक अनुवाद, एनजीओगीरी और अन्य छिटपुट काम करने के बाद बाबू पता नहीं कहाँ अलोप हो गया।

यह जान कर तसल्ली हुई कि अब वह सुख से है। अगर मेरे बस में होता, तो मैं भी उसके साथ चल देता। शाम को जी भर कर शराब पीने के बाद रात भर धर्म, नैतिकता, जीवन, दुनिया, ब्रह्मांड आदि विषयों पर बातें करने से ज्यादा सुख और कहाँ है!


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