एक
किस एक स्मृति से है मन की संपन्नता का नाता?
पूछती हूँ अपने-आप से
कितना संपन्न था पहले यह मन
चाँदनी चौक की तंग गलियों में घूमता पिता के साथ
दो अक्तूबर से शुरू होती थी खादी पर छूट
और हम चुनते थे उनके साथ छोटे-छोटे रंगीन टुकड़े
कुछ न कुछ बना ही देती थी माँ -
मेरी सुन्दर-सी फ्राक, कुर्सी की गद्दी का खोल या फिर मेजपोश ही
थकता कहाँ था यह मन
ऊँची पहाड़ी के मंदिर तक उड़ा चला जाता था
स्वस्थ पिता की उँगलियाँ थाम नवरात्र के मेले में
फतेहपुरी के भीड़ भरे बाज़ार की हलचल के बीच
खील-बताशे खरीदता दिवाली के आसपास!
उस सम्पन्नता का है कहीं सानी?
जब झड़ते थे प्रश्न बेहिसाब
बचपन की फैली आँखों से
उत्तर सब थे पिता के पास
और था कहानियों से भरा बस्ता
जिसमें झाँकते थे -
टाम काका, वेनिस का सौदागर और पात्र पंचतंत्र के
यमुना किनारे की रेत से कभी बटोरते हम काँस फूल
नंगे पाँव ही हो आते थे उनके साथ
छोटी-सी क्यारी में बोए मक्का तोड़ने
या उलझी लता से खींचते थे साथ मिलकर
नरम हरी तोरियाँ!
सुबह जागती-सी नींद में गूँजता स्वर
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
संध्या वेला को त्र्यम्बकं यजामहे का विशुद्ध अटूट क्रम
यह है पिता के साथ की समृद्ध दुनिया अब भी मेरे भीतर
बहुत बढ़-चढ़ तो गई ही है बाहर भी सब ओर
मेरे आस-पास की दुनिया
सूना रहता ही कहाँ है
कामकाजी अभिनय से भरा जीवन-मंच?
मुश्किल से मिले निपट अकेले क्षणों में कभी
याद करना बीते हुए माँ-पिता की दुनिया में अपनी व्याप्ति
और खो देना समूची रिक्तता
लगता नहीं
है कहीं इस सम्पन्नता का कोई सानी!
दो
जिंदगी को गणित के सवालों-सा हल करना
मुझे कभी नहीं आया
कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग
बचपन से ही
कविता के आसपास रहती आई जिंदगी मेरी
रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच माँ गुनगुनाती -
गूँजते थे कानों में वे घुँघरू शब्द
जिन्हें पगों में बाँध नाचती थी मीरा!
बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते
पिता का सधा कंठस्वर
सुबह के उजाले को साथ लाता -
नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था
सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय
जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर
धीमे से ऊँचा उठाती थी मैं भी
छात्रावास की सहेलियों के साथ -
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे
अब इस तरह के सवाल क्यों
जिनका कोई हासिल न हो?
मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि
कबीर का अक्खड़ दोहा बल दे जाता है मुझे
जब तक
अज्ञेय का मौन और भवानी के कमल के फूल झरते हैं आसपास
शून्य हो जाने दूँ जीवन का उल्लास
व्यर्थ की जोड़ तोड़ करते! ?
तीन
उनके जीवन के साथ
उनके दुख भी गए
वे किसी को कोई दुख न दे गए
न किसी का कुछ ले गए
बहुत कम जो भी जोड़ा था
तन की मेहनत से
मन की लगन से
उसी से था घर भराभरा -
उनके जाने के बाद भी
कई दिनों तक रहेगा
रसोई के भण्डार में
नमक तेल चीनी के साथ
और भी बहुत कुछ उनसे जुड़ा
कोई ऋण बाकी न रहा उन पर
क्या उऋण हो सकेगी संतान?
करेगी वह सभी के साथ
पिता और माँ जैसा निस्वार्थ
और बिना शर्त प्यार?
इसीलिए तो
इतना अभावग्रस्त कर देने वाला है
पिता के बाद माँ का भी चले जाना!
चार
घड़ी की सुइयों पर दबाव
मैंने नहीं डाला
कैलेण्डर की तारीख को भी
दृष्टि से नहीं बाँधा
फिर भी अगर
ये पल ठहर गए हैं तो क्या
मैं जीना स्थगित कर दूँ कुछ देर के लिए?
पाँच
जैसे पहाड़ पर बादल उमड़ते हैं
घाटी में कोहरा उतरता है
जैसे किसी सुबह जागने पर
बर्फ की चुप्पी घिरी मिलती है,
वैसे ही मेरे मन में
प्यार अकेलापन और थोड़ा-सा दुःख
उमड़ता है
उतरता है
घिरता है
जैसे पहाड़ पर बादल
बरस जाते हैं
कोहरा छँट जाता है और बर्फ भी
पिघल जाती है
वैसे ही मेरे मन का प्यार
ब
र
स
जाता है
अकेलापन छँट जाता है
और दुःख भी पिघल जाता है
तुम्हारे पास आकर!
छह
खरी धूप में झुलसता रहा
एक आत्मीय आकार
और सधे कदमों में एक ही सुध बाकी थी -
बस छूट जाएगी!
सात
तब मुझे अच्छे लगते थे
हरे-भरे खेत -
पहाड़ आसमान बादल
और छोटी छोटी नहरें
अच्छे तो अब भी हैं वे सब
पर अब मैं वह कहाँ?
आठ
क्या कोई आता है - फैलाकर हाथ
समेटने को किसी का बिखराव?
क्या कोई खोलता है - मन के उन्मुक्त द्वार
सुलझाने को किसी की उलझन?
क्या कोई पहुँचता है वहाँ - जहां हम अकेले होते हैं और उदास?
या हमें खुद ही आना पड़ता है- उदासी के घेरे के पार ?
और खुद ही ढोना होता है?
अपने दर्द का अम्बार
नौ
जब कोई नहीं है साथ
बहुत काफी हैं एक दूसरे के लिए
मैं और मेरा एकांत
सताते नहीं एक-दूसरे को हम
न कतराते ही हैं एक दूसरे से
झाँक लेते हैं फ्लैट की खिड़की से
हाथों में हाथ डाल साथ-साथ
कबूतरों की उड़ान बिल्लियों की छलाँग
छलछलाई नदी के किनारे की चहलकदमी
अनूठी शीतलता से भर देती है
मुझे और मेरे एकांत को!
दस
दोहरे शीशे जड़ी खिड़की से देखती हूँ बाहर की दुनिया
और भरपूर जीती हूँ
अकेलापन नहीं यह मेरा एकांत है
जो मुझे रचता है!
ग्यारह
सोए हुए को जगाना चाहिए - कहा था अपने आपसे
जाग उठा सागर अबाध एक उस दिन
आश्चर्य कि वह खारा भी नहीं था!
बारह
अपने-अपने कोटर में जा दुबके सब
मौन वृक्ष की छाया लंबी होती चली गई!
तेरह
तुमने भी देखा न
नीली जमीन पर सफेद फूलों-सा छाया आसमान,
कभी सँवलाया-बदराया आसमान,
डूबते सूरज की लाली में रँगा
और कभी भरी दोपहरी
बेतरह तमतमाया आसमान,
देर तक ठहर कर हवा में हाथ हिलाता
धब्बेदार आसमान - तुमने भी देखा न?
इतने रंग बदलता है आसमान - हम तो फिर इंसान हैं!
और अंत में एक लंबी कविता : बातचीत अपने आप से
अभी अपने कमरे में थी तुम
किताबों के पन्ने पलटती -
कविताएँ पढ़ती,
कब जा चढ़ी कंचनजंघा पहाड़
जिसे तुमने कभी देखा ही नहीं?
और उस दिन बरसात के बाद
दिखा था जब इन्द्रधनुष
क्यों देखती ही रह गई थी तुम
जबकि सीटियों पर सीटियाँ दे रहा था
कुकर रसोई में?
क्यों तुमने बना लिया है मन ऐसा
कि झट जा पहुँचता है वह
पुरी के समुद्र तट पर?
कभी फूलों की घाटी से होकर
मैदान तक दौड़ जाता है तुम्हें बिना बताए?
अब इसी समय देखो न -
कितने-कितने चेहरे और दृश्य और
उनसे जुड़ी बातें
आ-जा रही हैं तुममें
बाँसुरी की तान के साथ झूमता
नीली आँखों वाले लड़के का चेहरा,
घर की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठी
उस बच्ची का चेहरा
जिसके ममी-पापा आज फिर लड़े हैं!
अब तुम्हारे भीतर करवट ले रहा है
बचपन के विद्यालय में उगा
बहुत पुराना इमली का पेड़
बस दो ही पल बीते
कि चल दी
दिल्ली परिवहन की धक्का-मुक्की के बीच राह बनाती
सीधे अपने प्रिय विश्वविद्यालय परिसर !
अब सुनोगी भी या
मकान बनाते मजदूरों को देख
बस याद करती रहोगी कार्ल मार्क्स!
कितनी उथल-पुथल से भरा
बेसिलसिलेवार-सा
एक जमघट है तुम्हारा मन
यह तो कहो कि क्यों
एक-सा स्पंदित कर जाता है तुम्हें
फिराक का शे'र
और तेंदुलकर का छक्का?
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