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कविता

डरना मत भाई

हरे प्रकाश उपाध्याय


आ रहे हैं मेहमान
लीपना होगा घर-आँगन
बुहारना होगा गलियों को
सिर्फ बुहार दें आवारा पत्ते
हटा दें महकती मिट्टी और सड़ते खर
इतने से खत्म नहीं हो पाएगी बदबू

बेवजह जल रही आग को बुझाना होगा
इन दीवारों पर
जो धब्बे जड़ गए हैं उनका
क्या होगा, सोचो भाई
आदमी के खून से रँगे किवाड़ों की सोचो
कैसे छुपाएँगे उन्हें
कई बार रगड़नी पड़ेगी सफेदी
जमीन को गोबर से लीपना होगा
अस्त-व्यस्त चीजों को सहेजकर
ठीक-ठाक रखना होगा!

रास्ते में जो झाड़-झंखाड़ हैं
जंगल और पहाड़ हैं
उन्हें तोड़ना होगा काटना होगा।
रास्ते में साँपो की बाँबियाँ मिल सकती हैं
डरना नहीं भाई
सुनाई दे सकती है उनकी फु़ँफकार
ऐसे में सीधे नहीं, उनके मुँह पर फेंकना कपड़ा
और तब उठाना लाठी
सीधे लड़ने के दिन गए

मेहमान आ रहे हैं
स्मृतियाँ ओर घर की सारी चीजें जगह पर
होनी चाहिए और ठीक-ठाक...।

 


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