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कविता

मन

हरे प्रकाश उपाध्याय


उस अपमान को तो मैंने दिल पर लिया था
पर यह दिमाग को क्या हो गया था
सबसे अधिक वही रूठ गया था

सामने रखी थी चाय कचरी और मिठाइयाँ
हाथों ने निभाई औपचारिकता
मुँह ने दिया साथ
कोई अच्छी धुन बज रही थी
कान सुन रहे थे
कम से कम सुनने का कर्तव्य तो निभा ही रहे थे

पर न धुन असर डाल रही थी
न चाय कचरी मिठाइयाँ
उस समय के स्वाद और धुन के बारे में कोई पूछे
तो कुछ नहीं बता पाऊँगा मैं
मेरा मन वहाँ नहीं था

अपमान की गूँजें मन को कहाँ से कहाँ ले जाती हैं
मनोवैज्ञानिक कहते हैं मन तो दिमाग का उपक्रम है
लेकिन कैसे कहूँ कि दिल से उसकी कितनी नजदीकी है

ये दिल और दिमाग कितने जुड़े हैं आपस में
और इतने अक्खड़ हैं
कि शरीर में रह कर भी
शरीर की औपचारिकताओं और शालीनताओं में
शामिल होने से इनकार कर देते हैं

आपको अजीब लगेगा न
कि आपकी चापलूसी में शामिल नहीं है आपका दिमाग!

 


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