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					जब भी मैंनेकिसी घने वृक्ष की छांव में बैठकर
 घडी भर सुस्ता लेना चाहा
 मेरे कानों में
 भयानक चीत्कारें गूंजने लगीं
 जैसे हर एक टहनी पर
 लटकी हों लाखों लाशें
 जमीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर
 मैं, उठकर भागना चाहता हूं
 शंबूक का सिर मेरा रास्ता रोक लेता है
 चीख-चीखकर कहता है-
 युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूं
 बार-बार राम ने मेरी हत्या की है
 
 मेरे शब्द पंख कटे पक्षी की तरह
 तडप उठते हैं-
 तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्वी
 यहां तो हर रोज मारे जाते हैं असंख्य लोग;
 जिनकी सिसकियां घुटकर रह जाती हैं
 अंधेरे की काली पर्तों में
 
 यहां गली-गली में
 राम है
 शंबूक है
 द्रोण है
 एकलव्य है
 फिर भी सब खामोश हैं
 कहीं कुछ है
 जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
 बाहर नहीं आने देता
 कर देता है
 रक्त से सनी उंगलियों की महिमा मंडित
 
 शंबूक, तुम्हारा रक्त जमीन के अंदर
 समा गया है जो किसी भी दिन
 फूटकर बाहर आएगा
 ज्वालामुखी बनकर!
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