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कविता

पीछे छूटी हुई चीजें

नरेश सक्सेना


बिजलियों को अपनी चमक दिखाने की
इतनी जल्दी मचती थी
कि अपनी आवाजें पीछे छोड़ आती थीं
आवाजें आती थीं पीछा करतीं
अपनी गायब हो चुकी
बिजलियों को तलाशतीं

टूटते तारों की आवाजें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उनकी आवाजें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुँच ही नहीं पातीं

कभी-कभी रातों के सन्नाटे में
चौंक कर उठ जाता हूँ
सोचता हुआ
कि कहीं यह सन्नाटा किसी ऐसी चीज के
टूटने का तो नहीं
जिसे हम हड़बड़ी में बहुत पीछे छोड़ आए हों!

 


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