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कविता

चट्टानें

नरेश सक्सेना


चट्टानें उड़ रही हैं
बारूद के धुओं और धमाकों के साथ

चट्टानों के कानों में भी उड़ती-उड़ती
पड़ी तो थी अपने उड़ाए जाने की बात
वे बड़ी खुश थीं
क्योंकि हिंदी भाषा के बारे में
वे कुछ नहीं जानती थीं

उन्हें लगता था
उन्हें उड़ाने के लिए वे लोग
पंख लेकर आएँगे।

 


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हिंदी समय में नरेश सक्सेना की रचनाएँ