बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद करके उसने अपने कपड़े उतारकर खूँटी पर टाँग दिए थे। छोटे-से बाथरूम में ठीक से खड़े होने के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं थी। एक कोने को
घेरकर बड़ा चहबच्चा था और दीवार पर कुछ कीलें गड़ी थीं। ऊपर एक छोटा रोशनदान था जिसपर साबुन, तेल, दंत मंजन जैसी चीजें रखी रहती थीं। उसके पीछे घर की चारदीवारी के
पार एक बहुत बड़ा नीम का पेड़ था जिस पर दिन भर कौए बोलते रहते थे।
बाथरूम में दाखिल होते समय उसे शैंपू के साथ साबुन की बट्टी थमाते हुए बड़ी भाभी ने विनोदपूर्ण अंदाज में उससे कहा था - खूब रगड़कर नहाना लाडो, फिर देखना, तुम भी
फिल्म तारिकाओं की तरह फेयर एंड लबली हो जाओगी। कहते हुए यथासंभव गंभीर रहने के बावजूद उनकी आँखों में गहरा व्यंग्य छलक आया था। आँगन में कुएँ के जगत पर बैठकर
बर्तन माँजती हुई महरी मुँह दबाकर अपनी हँसी रोकने का प्रयत्न करती रही थी।
वह देखने में सुंदर नहीं है। उसका रंग गहरा साँवला है। इस कारण अब तक उसकी शादी नहीं हो पाई है। उम्र तीस पार कर रही है। पूरा घर उसकी शादी न हो पाने की वजह से
परेशान है। अब तक न जाने कितने रिश्ते आए और टूट गए। किसी को उसका रूप पसंद नहीं आता तो किसी को उसका रंग! पढ़ाई-लिखाई में भी वह हमेशा से साधारण ही रही थी। किसी
तरह पास क्लास में बी.ए. पास करने के बाद स्थानीय कचहरी में उसे टाइपिस्ट की नौकरी मिल गई थी। यही गनीमत है। इस नौकरी की वजह से भैया-भाभी का रवैया उसके प्रति
कुछ ठीक हो चला है, वर्ना वे तो उससे कटे-कटे ही फिरते थे।
उन सबके बीच में माँ थीं - अपनी मजबूरियों के सलीब में लटकी हुई। एक तरफ उनकी वयस्क, विवाह योग्य बेटी थी तो दूसरी ओर उनकी बहू और बेटा जिनका मन रखकर चलना अब
उनकी व्यावहारिकता ही नहीं, विवशता भी बन गई थी। अपनी अन्य दो बेटियों का विवाह कर अब वे रात-दिन अपनी छोटी बेटी के विवाह को लेकर परेशान रहा करती थीं।
आज सुबह जब वह ऑफिस के लिए निकल रही थी, बड़े भैया ने यह कहकर रोक लिया था उसे कि आज लड़केवाले उसे देखने आएँगे। उन्होंने शायद अपने आने की सूचना अचानक ही दी थी।
घर में एकदम से हडबड़ी मच गई थी। भैया बाजार से खाने-पीने का सामान ले आए थे। माँ ने जल्दी-जल्दी दरवाजे, खिड़कियों पर धुले हुए पर्दे डालकर मेज पर फुलकारीवाला
सफेद मेजपोश बिछा दिया था। उसके द्वारा सीले गए तकिया के गिलाफ, चादर, मेजपोश आदि भी निकालकर बैठक में नुमाइश के लिए करीने से सजा दिए गए थे।
बड़ी भाभी ने बड़े बेमन से अपनी लाल बार्डरवाली तसर सिल्क की साड़ी और मोतियों का सेट निकाल दिया था। कटाक्ष करने से भी नहीं चूकी थीं - इस बार अगर ऊपरवाले की कृपा
से तुम्हारी शादी पक्की हो गई तो तुमसे गिन-गिनकर दस ड्राई क्लीन के पैसे लूँगी ननदजी! फिर महरी की तरफ मुड़कर हल्के से अपनी बाईं आँख दबाई थी - इसे
देखने-दिखाने के चक्कर में अब तक न जाने मेरी कितनी साड़ियों का सत्यानाश हो चुका है...
भैया ने उन्हें घूरकर देखा था और वह अपनी हँसी दबाती हुई दूसरे कमरे में चली गई थी। माँ ने उसकी बात न सुनने का एक बार फिर अभिनय किया था। इसी तरह वह अपनी बेटी
के अपमान और बहू के कोपभाजन बनने से स्वयं को बचाए रखती हैं।
सब कुछ सुन-समझकर भी वह अनजान बनी अपने नाखून तराशती रही थी। बीते कई वर्षों में वह अपने अंदर एकदम भोंथरा, कुंद हो आई है। अब हर बात पर उसे दुख नहीं होता, एक
तरह से उसे इनकी आदत-सी पड गई है।
उसके हाथ-पाँव सूखे और असुंदर हैं। गाँठ पड़ी अँगुलियों पर की त्वचा ढीली और झुर्रियोंदार है। पाँव की अँगुलियाँ भी मोटी और ऊपर की तरफ से एक अनुपात में छँटी हुई
हैं। मैनीक्योर, पैडिक्योर की तो कोई गुंजाइश नहीं थी, किसी तरह नाखूनों को गोलाई में काटकर उन पर हल्के मोतिया रंग की नेल पॉलिश की लीपा-पोती कर दी गई थी।
माँ ने बेसन, मलाई का लेप तैयार कर सुबह ही उसके चेहरे पर लगा दिया था। वह बिना कुछ कहे सबका कहा किए जा रही थी। माँ को कभी-कभी अपनी बेटी की इस चुप्पी से बहुत
डर लगता है। उन्हें लगता है, उसकी बेटी के अंदर कभी बहनेवाली जीवन की उजली नदी धीरे-धीरे मरती जा रही है। वह उन्हीं के सामने चुपचाप ऊसर होती जा रही है। कितनी
जीवंत, प्रांजल हुआ करती थी कभी। हँसी में किसी अल्हड़ नदी का-सा किल्लोल हुआ करता था... गहरी साँस लेकर वह आकाश की तरफ देखती हैं - ईश्वर ने उसे कैसा उजला मन
दिया है, मगर कोई उसे देखना नहीं चाहता। सबको रूप चाहिए, गोरा रंग चाहिए... अपनी बेटी को तिल-तिलकर घुटते-मरते हुए देखने के लिए वह विवश भी है और अभिशप्त भी।
उसके सूने, क्लांत चेहरे की तरफ देखकर वह एकांत में अपनी आँखें पोंछती है और भगवान के उद्देश्य में हाथ जोड़ती हैं।
मलाई, बेसन का उबटन लगाकर भी उसके रूखे चेहरे पर कोई निखार नहीं आता। बल्कि चेहरा और ज्यादा पीला और त्वचा रुक्ष लगने लगता है। न जाने क्यों उसके माता-पिता ने
उसका नाम लावण्य रख दिया था। यह एक बहुत बड़ी विडंबना हो गई थी उसके साथ। लोग उसका नाम सुनते ही कौतुक से मुस्कराते - लावण्य...! अच्छा!
'बाँझ धरती पर कभी फूल नहीं खिलते...' आईने में अपने चेहरे की तरफ देखकर उसे कहीं बहुत पहले पढ़ी किसी कविता की यह पंक्ति याद आती और वह अपना मुँह फेर लेती। सुबह
उठकर आईने में अपना चेहरा देखने से भी वह कतराती है।
बड़ी भाभी कामकाज के बीच उसे बहुत हिकारत से देख रही थी। वह स्वयं बहुत खूबसूरत है। गोरी और सुडौल। दो बच्चों के जन्म के बाद शरीर और भी भरकर खिल आया है। सोने के
आभूषण उनके शरीर पर झलमलाते हैं। गहरे, चटकीले रंग की साड़ियों और माँगभर सिंदूर में सूरजमुखी की तरह दर्प और गुमान से दपदपाती फिरती हैं। भैया पूरी तरह उनके वश
में हैं। ऊपर से उनका मायका भी संपन्न है। अपने साथ घर भर कर दहेज लाई हैं। सभी पर उनका रोब जमा हुआ है।
उनके भव्य व्यक्तित्व के सामने लावण्य का पहले से ही दबा-ढका स्वभाव और भी दयनीय होकर रह गया है। भाभी भी उसे उसकी तुच्छता, हीनता का बोध कराने का एक भी अवसर
हाथ से जाने नहीं देतीं। उनके रात-दिन के ताने, उलाहने और हृदयहीन कटाक्ष से लावण्य के अंदर का रहा-सहा आत्म विश्वास भी एक तरह से समाप्त हो गया था। वह किसी
योग्य नहीं। उसे कभी कोई नहीं अपनाएगा। अक्सर वह बाथरूम में नहाते हुए रोती है, इतना धीरे कि कोई सुन न सके - मुझे भी प्यार चाहिए, अपना घर, परिवार चाहिए...
वह जहाँ भी जाती है, उसका अभी तक विवाह न हो पाना ही मुख्य मुद्दा बना रहता है। पहले-पहले इनके जबाव में जो बहाने गढ़े जाते थे वे अब उसे स्वयं ही हास्यास्पद
प्रतीत होने लगे थे। इसलिए अब वह अधिकतर सामाजिक, धार्मिक कार्यक्रमों जैसे शादी, मुंडन, जनेऊ आदि में जाने से कतराने लगी थी...
उसके साथ की लड़कियाँ अब तक एक-एककर ब्याही जा चुकी थीं। शादी के कुछ महीनों बाद ही वे अक्सर गर्भवती होकर अपने मायके लौट आती थीं। उनके निखरे चेहरे, सुहाग-राग
की कहानियाँ, गर्व, तुष्टि से आप्लावित रूप... इन बातों से एक तरह से उसे वितृष्णा ही हो गई है। उसे लगता है मानो सब जान-बूझकर उसका दिल दुखाने के लिए ही अपने
सौभाग्य और भरी-पूरी गृहस्थी की कहानी उसके सामने सुनाते रहते हैं। अपने सुख की ढेर सारी बातें बताकर वे चेहरे पर सहानुभूति के कृतिम भाव ओढ़कर उससे पूछते -
और... तेरा कुछ हुआ? जो जग जाहिर है, उसका जबाव देना वह जरूरी नहीं समझती थी। चुपचाप उठकर वहाँ से चली आती थी। उसे लगता था, उसे देखते ही यकायक लोग चुप हो जाते
हैं या उसके पीछे कानाफूसियाँ तेज हो जाती हैं।
सभी से किनारा करते-करते आज वह प्रायः निसंग हो आई है। दफ्तर में अपने काम से काम रखती है और घर में फुर्सत के क्षणों में अपने में डूबी अकेली पड़ी रहती है।
शामें उसकी अधिकतर छत के एकांत में खड़ी-खड़ी कट जाती हैं।
अप्रैल की उल्टी-पल्टी चलती हवा में सहजन के फूल झरते रहते हैं, दूर डैम के शांत बँधे हुए पानी में पूरा आकाश तैरता रहता है। वह मौसम की करवटें देखती है, धरती
का हर पल बदलता रूप भी। बस एक वह है जो वही की वही रह गई है - अपनी ठहरी हुई किस्मत के साथ। एक साँवले शरीर की कैद में मन का सारा उजलापन भी धीरे-धीरे धूसर पड़ता
जा रहा है। गुजरते हुए समय के साथ मन का सोना देह की माटी में दवा पड़ा अपनी चमक, अपना रंग खोता जा रहा है... मगर इस माटी की दुनिया को माटी का ही मोह है, स्नेह,
संवेदना जैसी चीजों का कोई मोल नहीं... कोई उसे अपनाने, माँजने को तैयार नहीं होता।
मगर अपनी मैली त्वचा के नीचे वह भी उतनी ही इनसान है जितनी गोरी रंगतवाली लड़कियाँ। उसके सपने, उसकी इच्छाएँ, उसका मन सिर्फ काली होने से दूसरों से अलग नहीं हो
जाता। कोई उसे छूकर क्यों नहीं देखता, उसके परस में उतनी ही कोमलता है जितनी किसी खूबसूरत लड़की के स्पर्श में होती है। उसकी साँसों में वही हरारत है, वही चाहना
जो एक सुंदर शरीर की मालिक के पास होती है। कोई उसकी आँखों में झाँके तो! सुने तो उसकी मूक चावनी की भाषा... वह प्यार देना चाहती है - स्वयं को उजाड़कर -
ढेर-ढेर सारा... कोई बस ले ले उसे, सब रह गया है उसके भीतर - पहाड़ बनकर - स्नेह, करुणा, कामनाएँ, इस मैले-कुचैले, असुंदर शरीर के भीतर वह दबकर रह गई है, मकबरा
बन गया है यह साँवला रूप उसकी आत्मा का, जिसका कोई रंग नहीं होता, होती है बस अरूप संवेदनाएँ, जिसका कहीं कोई दाम नहीं...
वह अकेले में पड़ी-पड़ी सोचती है, जिंदगी अब बाजार में पड़ी हुई एक वस्तुमात्र है, उसी के हाथों रेहन चढ़कर रह गया है। इनसान को कैसा होना चाहिए, यह यही बाजार तय
करता है। दुनिया कैसी है, यह बात नहीं, दुनिया कैसी होनी चाहिए, यह बात अहम हो गई है। और यह बात बताती है लोगों को कोई और नहीं, यही बाजार - बड़ी-बड़ी बहु
राष्ट्रीय कंपनियाँ - अपने तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन के जरिए। यह कंपनियाँ तय करती है, इनसान को कैसा दिखना चाहिए, कैसे उठना-बैठना चाहिए, कैसे जीना
चाहिए... सुबह से लेकर रात तक - हर बात, हर काम के लिए इनका मशविरा लेकर चलना जरूरी हो गया है। वर्ना आज के दौर में पिछड़ जाने का डर है और यह कोई भी नहीं
चाहता। सभी को अप टु डेट और टेंड्री बने रहना है।
यह सहृदय, अच्छी प्रसाधन कंपनियाँ बताती हैं, आज की औरत को गोरी, खूबसूरत, जीरो फिगर की होनी चाहिए, जिसके बाल रेशमी, मुलायम और रंगीन हो, पलके मसकारा लगाकर
घनी, लंबी हों, होंठ इस रंग के हों और गाल उस रंग के हों। वह डिजाइनर अंतर वस्त्र पहने और सुबह अमूक कंपनी का कार्न फ्लैक अमूक स्किमड् मिल्क के साथ करे। तभी
उसकी शादी होगी, तभी उसे कार्पोरेट कंपनियों में ग्लैमरस् नौकरी मिलेगी, उसके बच्चे गोल-मटोल और हाई आई क्यूवाले पैदा होंगे तथा पति मिलेगा गुड लुकिंग, हैंडसम
और बेहद प्यार करनेवाला जो उसे अक्षय तृतीया तथा धन तेरस के अवसर पर हीरों का हार दिलवाएगा तथा मॉरिसस में हॉली डे करवाते हुए प्रेम के लिए चाकलेट फ्लेवरवाले
कंडोम का इस्तेमाल करेगा। इसे वे एक्स फैक्टर का नाम देते हैं। यह एक्स फैक्टर का होना सबके लिए बहुत जरूरी हो गया है।
वह उदास हो जाती है। सोचती है, वह तो सब कुछ इस्तेमाल करती है - गोरेपन की क्रीम, शैंपू, साबुन, टूथ पेस्ट... सब कुछ! फिर भी वह अब तक वही की वही क्यों बनी हुई
है - साँवली, सपाट, असुंदर...
विज्ञापन तो चिल्ला-चिल्लाकर यही बताता है कि किसी के पास अपना कुछ भी होने की जरूरत नहीं। सब कुछ बाजार में उपलब्ध है, बस जाओ और उठाकर ले आओ - चेहरा, फिगर,
प्रेम और भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति, रिश्ते और रिश्तों की जमा पूँजी... कोई चाय लोगों को अन्याय, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देती है तो कोई सुगंध
इनसान में प्रेम और इच्छा जगाती है। उसने तो उनकी सारी बातें मानी - माननी पड़ी, उनपर अमल भी किया, इन सबके बावजूद... सब मृग मरीचिका ही तो निकला - सोने का हिरण!
आकाश में मौसम का एक टुकड़ा नया चाँद उगता है, तुलसी पर हरसिंगार के उजले फूल अलस झरते हैं, वह देखती है और देर तक देखती रहती है। अंदर धीरे से एक पूरे आकाश का
सूनापन घिर आता है।
कभी गिरती हुई साँझ में घर लौटते पक्षियों की काले मनकों की-सी कतारें यहाँ-वहाँ से टूटती हुई साँवली हवा में अस्पष्ट बिला जाती है, दूर कहीं अकेली पड़ गई किसी
टिटहरी की अनवरत पुकार उसे अनाम दुख से भर देती है...
कभी-कभी माँ पास आ खड़ी होती है। अपनी पीठ पर रखा उनका हाथ वह महसूस करती है, उससे निसृत होती संवेदना भी, मगर कुछ कह नहीं पाती। इच्छा नहीं होती। एक मौन संवाद
बहुत कुछ कहता-सुनता देर तक दोनों के बीच बना रहता है। अंत में रह जाती है दो जोड़ी गीली आँखें और कुछ उच्छ्वास - लंबी और गहरी... यही माँ-बेटी के साझे का है,
बाकि वही अजनबीपन और पथराया हुआ अछोर मौन...
छत से उतरते हुए माँ अपना मुखौटा तलाशने लगती हैं, उन्हें अभी जिंदगी निभानी है। उनका साथ देती हुई वह भी अपनी उदासी तह करके रख लेती है। अभी इनके लिए अवकाश
नहीं। फिर कभी फुर्सत के किसी महफूज-से क्षण में इन्हें ओढ़-बिछा लेगी।
इन दिनों माँ कुछ अजीब-सी हरकतें करने लगी हैं। रोज कोई न कोई नया टोटका, किसी मंदिर या थान का प्रसाद, भभूति, मंत्रपुत ताबीज आदि लाकर उसे थमाती रहती है। उस
दिन फेयर एंड लबली का बड़ा ट्यूब खरीद लाई थी। साथ में पैडेट ब्रा और शरीर के अनचाहे बाल उठाने का महँगा क्रीम... एक दिन स्वयं ही फैशन टी.वी. का चैनल लगाकर उससे
कहने लगीं - कैसी सीधी-सादी रह गई रे तू लावण्य। दूसरी लड़कियों को देख, उनका उठना-बैठना, चाल-चलन... नए जमाने का कुछ सीखेगी नहीं तो दूसरों की नजर में पड़ेगी
कैसे। कहते हुए वह स्वयं उसे मॉडलों की तरह चलने का तरीका सिखाने लग पड़ी थीं। ऐसा करते हुए कितना दयनीय, कितनी भद्दी लगने लगी थीं वे... उसने संकोच से अपनी
आँखें मूँद ली थीं।
पहले यही माँ-बाबूजी उन्हें टी.वी. पर ऐसा-वैसा कार्यक्रम तक देखने से रोकते थे। बचपन में एक बार 'हम तुम एक कमरे में बंद हों...' गाने के लिए बड़े भैया को
पिताजी से मार पड़ी थी। माँ उन्हें अक्सर अजीब नजरों से घूरने लगती हैं। दूसरों की नजर से देखते हुए उन्हें भी अपनी बेटी में खोट ही खोट नजर आती हैं - साँवली,
ठिगनी है उनकी बेटी। हिंदी माध्यम से पास क्लास में बी.ए. पास। अंग्रेजी बोलनी नहीं आती... वह उसकी सूखी देह देखती है और मन मसोसकर रह जाती है। न जाने किस अकाल
की पैदाइश है! जी चाहता है, हाथ में कैंची लेकर उसे खुद हीं काँट-छाँटकर बराबर कर दें, कहीं से ज्यादा तो कहीं से कम कर दें।
पड़ोस की सकालो देवी का का भतीजा हाल ही में अमेरिका से कॉस्मेटिक सर्जन बनकर लौटा है। वह दूसरे ही दिन अपना सारी लाज, शरम ताक पर धरकर उसके पास चली गई थी और
प्लास्टिक सर्जरी के बाबत सारी जानकारी लेकर आई थी। मगर बाद में खर्चे की बात सुनकर उनका सारा उत्साह एकदम से ठंडा पड़ गया था। दो अदद सुडौल स्तनों का मूल्य डेढ़
लाख रुपए...! उन्होंने आखिर लावण्य की खुराक में एक कप दूध अतिरिक्त जोड़ दिया था। हो सकता है शरीर के भरने के साथ उसके वक्ष भी भर आए।
उनकी बातों से त्रस्त होकर लावण्य घंटों अपने कमरे का दरवाजा बंदकर पड़ी रहती है। अवसाद की धूसर, मटमैली अनुभूतियों में उसका अंतस बोझिल हो उठता है। एक बार उसने
किसी लड़के की माँ से कहा था, आप मुझे स्वीकार लो माँजी, मैं अपने हाथ-पाँव तराश लूँगी... उनके ठिगने बेटे से वह लंबी निकली थी। तरह-तरह के अपमान, तिरस्कार उसे
मँथता रहता है। किसने उसके साधारण रूप, रंग का मजाक नहीं उड़ाया, उसकी उपेक्षा नहीं की। सोचते हुए उसे आलोक की याद आती है। अनायास ही अंदर जैसे कोई कच्ची
दीवार-सी गिरती है। वह सुलगते हुए तीखे काँटों से आपाद-मस्तक बिंधकर रह जाती है।
आलोक थोड़े दिनों के लिए उसके ऑफिस में काम करने के लिए आया था। उसका विभाग अलग था, मगर आते-जाते रास्ते में उनका आमना-सामना हो जाता था। पहली बार अपने जन्मदिन
का केक देने वह उसके कैबिन में आया था। वह देखने में जितना आकर्षक था, स्वभाव से भी उतना ही भला था। पहली बार उससे बात करके उसे बहुत अच्छा लगा था। उस दिन शाम
को घर जाते हुए उसने उसे बस स्टैंड तक अपनी स्कूटर में लिफ्ट दी थी। इसके बाद वह अक्सर उसे घर जाते हुए रास्ते में मिल जाता था। कई बार वह उसके स्कूटर में लिफ्ट
भी ले लेती थी। एक बार उसके आग्रह पर उसके साथ रेस्तराँ भी चली गई थी। उस दिन दोनों ने साथ लंच किया था।
धीरे-धीरे दोनों का औपचारिक परिचय घनिष्ठता में बदल गई थी। उसने शायद पहली बार किसी पुरुष की आँखों में अपने लिए प्रशंसा और कामना के भाव देखे थे। आज तक किसी ने
उसे इस तरह से महत्वपूर्ण महसूस नहीं कराया था। वह उससे मिलने के लिए आग्रह करता था, उसकी प्रतीक्षा में देर तक खड़ा रहता था, उसकी छोटी-छोटी बातों, कामों की
तारीफ करता था। लावण्य के ऊसर, बंजर जीवन में जैसे यकायक फूल खिल उठे थे। वह आलोक के प्रेम में सारा दुनिया-जहान भूला बैठी थी।
आलोक ने उसे बताया था, उस पर उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी है, दो बहनों की शादी भी उसे ही करनी है। इस समय यदि उसने अपने घरवालों से उसकी बात की तो वे परेशान
हो जाएँगे, इसलिए बहनों की शादी के बाद ही वह घर में उसकी बात करे सकेगा। उसे थोड़ा-सा इंतजार करना पड़ेगा। वह इसके लिए खुशी-खुशी तैयार हो गई थी।
इसके बाद आलोक उसे अपने फ्लैट में ले जाने लगा था। एक रूम का छोटा-सा फ्लैट था उसका, किराये पर लिया हुआ। वहाँ कभी वे सारा-सारा दिन पड़े रहते थे। आलोक की बाँहों
में सिमटकर वह सब कुछ भूल जाया करती थी। एक मरु की तरह वह न जाने कितने जन्मों से तृषित थी। किसी के प्यार के लिए, छुअन के लिए आकुल, अधीर... आलोक के प्यार का
परस पाकर वह किसी तटबंध टूटी नदी की तरह ही उद्दाम आवेग से बह आई थी, सारा कूल-किनारा तोडते हुए, सीमाएँ लाँघते हुए। उमर की पहली उठान से जो कामनाएँ अंदर ही
अंदर बेआवाज परवान चढती रही थी, वे यकायक गहरे-गहरे तक तुष्ट हो आई थीं।
किसी जलभरे मेघ-सा आलोक उस पर बरसा था, प्यास से दरकी जमीन की तरह वह उसे बूँद-बूँद पीती रही थी, रेत पड़ गई देह से अँखुआती, सब्ज होती रही थी। पहली बार उसने
जाना था, प्यार किसे कहते हैं, चाहना क्या होती है। अपनी ही देह में इतना सुख छिपा होता है, यह भी उसे मालूम नहीं था। वह भी एक स्त्री है, कमनीय और इच्छित है,
इसका अहसास जीवन में पहली बार आलोक ने ही दिलाया था उसे। वह किसी बाढ़ चढ़ी नदी की तरह अपने कूल-किनारों तक भर आई थी, छलकी पड़ रही थी रह-रहकर...
उन दिनों नेह के मृदुल छुअन से उसका अंग-अंग भर आया था। अंदर की खुशी लावण्य की धार बनकर चेहरे पर रिस आई थी। लोगबाग उसे मुड़कर देखने लगे थे, और भाभी ने भी
नोटिस किया था। माँ भी उसमें आए इस आकस्मिक परिवर्तन से आश्चर्य चकित थीं। कई बार उससे घुमा-फिराकर जानने की कोशिश भी की थी, मगर वह चुप रह गई थी। उनसे इस विषय
में कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई थी।
गर्मियों की छुट्टियों में जब कचहरी बंद हुई थी, आलोक अपने घर चला गया था महीने भर के लिए। उसके बाद उसकी कोई खबर नहीं आई थी। वह चिट्ठियाँ लिखकर हार गई थी, फोन
भी किया था। मगर आलोक ने किसी भी तरह का जवाब उसे नहीं भेजा था। छुट्टियाँ खत्म हुईं तो उसने पाया आलोक दफ्तर में भी नहीं आया है। पूछताछ करने पर उसे बताया गया
था आलोक की शादी हो गई है और वह नई नौकरी लेकर किसी और शहर में चला गया है।
सुनकर वह चुपचाप अपनी मेज पर आकर बैठ गई थी। उससे ठीक तरह से टाइप भी नहीं किया गया था, हजार गलतियाँ होती रही थीं और इसके लिए अच्छी-खासी ढाँट भी पड़ी थी उसे।
तो इसलिए आलोक उसके पत्रों के जबाव नहीं दे रहा था! कचहरी के गंदे, पान के पिक से भरे हुए टॉयलेट में वह खड़ी-खड़ी लंच ब्रेक के दौरान रोती रही थी। बाहर से लगातार
दरवाजा खटखटाया जा रहा था और आखिरकार जब उसने हारकर दरवाजा खोला था, बाहर एक अच्छी-खासी भीड़ जुट गई थी। नीला अंदर आकर उसका चेहरा धुलाकर उसे सहारा देकर बाहर ले
आई थी।
रिक्शा में बैठते हुए उसने देखा था, लगभग पूरी अदालत ही बाहर खड़ी होकर उसे देख रही थी। रास्ते में उसे अपना रूमाल देते हुए नीला ने कहा था - तुझे तो मैंने कितनी
बार समझाने की कोशिश की थी लावण्य। मगर तू तो उसके प्यार में ऐसी पागल हुई थी कि... खैर जाने दे। पता है, अरुण क्या कह रहा था, आलोक उसे कहा करता था, ऐसी
उपेक्षित और कुरूप लड़कियों को जाल में फँसाना बहुत आसान होता है। वे हीन ग्रंथि की शिकार होती हैं। और फिर बत्ती गुल होने के बाद अँधेरे में हर लड़की सुंदर हो
जाती है... अरुण उसकी शादी में भी शामिल हुआ था, कह रहा था, उसकी पत्नी बहुत खूबसूरत है - दूध-सी गोरी...
इसके बाद कई महीनों तक उसका ऑफिस जाना दूभर हो गया था। उसे लगता था हजार जोड़ी आँखें उसे हिकारत, उपहास और कौतुहल से हर समय घूर रही हैं। उसे उसके कपड़ों के पार
देख रही हैं। विवस्त्र हो जाने की-सी मनःस्थिति में हो आती थी वह। उस भयानक और अकल्पनीय पीड़ा को वह सह नहीं पा रही थी। कई बार जी चाहा था, अपनी जान दे दे, मगर
हिम्मत नहीं हुई थी। वह जीना चाहती थी, इस सब के बाद भी...
प्रेम के नाम पर छल, प्रवंचना, तिरस्कार... उसकी भावनाओं का निरंतर उपहास! यह बलात्कार ही था, देह के साथ मन का भी, मगर इसकी कोई सजा नहीं हो सकती... वह किससे
शिकायत करती और क्या!
सोचते हुए न जाने कितनी अनझिप रातें उसने पलकों पर काट दी हैं। जिस शरीर में कभी आलोक ने सुख के इतने गहरे उत्स ढूँढ़े थे, इच्छाओं के जीवित पराग बोए थे, उसमें
आज घुन लग गया है, क्षर रहा है हर क्षण दीमक लगे दरख्त की तरह। कभी उसे स्वयं से घिन आती है, कभी ग्लानि के बहाव से मन आप्लावित हो जाता है। दुर्बलता के विरल
क्षणों में कस्तूरी मृग की भाँति अपनी ही देह में आलोक का स्पर्श ढूँढ़ती फिरती है। यातना और आत्मदंश का एक लंबा, भयावह दौर...
आईने के सामने कभी खड़ी होती तो प्रतीत होता, किसी शवगृह में खड़ी होकर अपनी ही मृतदेह का शिनाख्त कर रही है। बहुत डर जाती थी वह। अपने में सिमट-सिकुड़कर दिनों तक
पड़ी रहती थी।
आलोक के परस से जो सोने के पानी की तरह लावण्य की परतें चढ़ी थीं देह पर, वे समय के साथ धीरे-धीरे उतर गई थीं। बची रह गई थी वही पुरानी लावण्य - अपनी रूखी-सूखी
काया और टूटे हुए स्वप्न के साथ।
इसके बाद भी कई रिश्ते आए थे उसके लिए, मगर कहीं कोई बात नहीं बन पाई थी। बार-बार सज-धजकर वह नुमाइश पर बैठती और बार-बार नापसंद कर दी जाती। ठुकरा दिए जाने की
जिल्लत में रात-दिन जीते हुए वह एक पथराये हुए मौन से दिन पर दिन घिरती जा रही थी। यही उसका अपने बचाव के लिए ढाल और कवच था। लोगों से वही पुरानी टिप्पणियाँ
सुनने को मिलतीं - लड़की बहुत काली है, स्वास्थ्य भी गिरा हुआ है, नाक-नक्श भी खास नहीं...
वह रंग-रोगन ले लीपी-पुती आँखें झुकाए बैठी रहती और लोग खाते-पीते हुए उसे देखते-परखते रहते। कोई उसे उठकर खड़ी हो जाने के लिए कहता तो कोई चलकर दिखाने के लिए
कहता। दूसरे कमरे में ले जाकर घर की बड़ी-बूढ़ियाँ उसके कपड़े हटाकर देह का मुआयना करतीं, अशोभनीय प्रश्न करतीं। इन सबको झेलते हुए वह किसी तरह अपने आँसू जब्त किए
रहती। जाते हुए सभी यही कहते कि हम जाकर आप लोगों को सूचित करेंगे।
यह सुनकर सभी समझ जाते कि इस बार भी लावण्य को नापसंद कर दिया गया है। माँ चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट जाती, भैया घर से बाहर निकल जाते और भाभी बड़बड़ाती हुई अपनी
साड़ी, गहने समेटने लगती। लावण्य अपने कमरे या एकमात्र आश्रय छत के कोने पर जाकर खड़ी रहती। आदत हो जाने के बावजूद न जाने क्यों हर बार वह रोती है और देर तक उदास
रहती है। उसे लगता है, वह किसी अदालत के कठघरे में खड़ी है और लोग उससे उस गुनाह का जबाव माँग रहे हैं, जो उसने कभी किया ही नहीं है।
कभी उससे उसकी इच्छा पूछी नहीं जाती, पसंद-नापसंद भी नहीं। मोटे, ठिगने, काले, कुरूप पुरुष उसके रूप-गुण पर निःसंकोच टिप्पणी करते, उसका उपहास उड़ाते और वह
गूँगी-बहरी बनी बैठी रहती।
न जाने क्य-क्या सोचती हुई वह देर तक बाथरूम के फर्श पर बैठी हुई थी। भाभी ने एक बार फिर बाहर से दरवाजा पीटा तो उसे होश आया। जल्दी-जल्दी देह पर साबुन रगड़ते
हुए ख्याल आया था उसे कि काश साबुन के इन झागों के साथ अपने रंग की मैल भी वह उतार फेंक पाती! चेहरे पर थोड़ा लावण्य और चाक्-चिक्य ला पाती!
दीवार पर टँगी आईने के धुँधलाये हुए शीशे में वह अपनी आकृति देखती रही थी - यहाँ-वहाँ से झाँकती हड्डियाँ, निर्जीव रूखी त्वचा, हाड़-मांस एक हुआ शरीर... अपनी
अपुष्ट, अविकसित वक्षों को दोनों हथेलियों में भरकर वह सोच उठी थी, काश उसके पास डेढ़ लाख रुपए होते... होते तो वह अंदर शिलिकॉन डलवाकर दो सुडौल उरोज वनवा लेती,
बटक्स के इंजेक्शनस् से अपने माथे की झुर्रियाँ सँवार लेती, त्वचा की सलवटें खिंचवाकर सोलह साल की लड़की की तरह उन्हें सतर, दुरुस्त कर लेती, नितंबों की मांस
पेशियों में हवा भरवाकर उन्हें गुब्बारे की मानिंद फुला लेती... आजकल तो रूप-रंग बाजार के शो केस में पड़ी हुई चीज है, जिसके पास पैसे हों, खरीद ले...
अपनी उश्रृंखल होती सोच पर वह सायास अंकुश लगाती है और जल्दी-जल्दी कपड़े पहनकर बाथरूम से बाहर निकल आती है। भाभी लगातार उससे जल्दी से तैयार हो लेने के लिए
ताकीद किए जा रही है। लड़केवालों के आने का समय लगभग हो चुका है।
भाभी के सवालों का कोई जबाव दिए बिना वह अपने कमरे बंद हो गई थी। भाभी अभी तक पूरा घर सर पर किए हुए थी। माँ भी हर दो मिनट में आदतन आकर उसका दरवाजा खटका जाती
थी।
थोड़ी देर बाद भैया ने आकर सूचना दी थी, लड़केवाले आ चुके हैं। भाभी रसोई में नाश्ते का बंदोबस्त देखने दौड़ गई थीं। भैया बैठक का मोर्चा सँभाले हुए थे। माँ अधैर्य
होकर फिर से उसका दरवाजा ही पीटने लगी थी। एक छोटे-से अंतराल के बाद अचानक लावण्य दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई थी और उस पर नजर पड़ते ही आँगन में खड़ी माँ के मुँह
से अनायास चीख निकल गई थी। शर्बत की ट्रे हाथ में लिए भाभी भी रसोई की दहलीज पर स्तब्ध खड़ी रह गई थी। बैठक से निकलकर भैया ने लावण्य पर नजर पड़ते ही अपनी आँखों
पर हाथ रख लिया था।
पूरी देह में गोरेपन की कोई क्रीम चूने की तरह पोतकर लावण्य लाल, चमकीली साड़ी में किसी मॉडल की-सी अद्भुत भंगिमा में खड़ी मुस्करा रही थी। उसके होठों पर लाल
लिपिस्टिक लिसरा हुआ था, आँखों में काजल... तरह-तरह के रंगों से अपने पूरे शरीर को सजाकर उसने स्वयं को कार्निवाल ही बना लिया था। ब्लाउज में भी चिथड़े ठूँसकर
उसने अपने सीने पर दो छोटे-मोटे भद्दे, बेढब पहाड़ उगा लिए थे...
देखने में वह भयावह लग रही थी। उसकी आँखों में अजीब तरह का उन्माद भरा हुआ था। हँसी की भंगिमा में रोती हुई-सी वह सबसे पूछ रही थी - मैं अच्छी लग रही हूँ न...?
देखो अब मैं गोरी भी हो गई हूँ, स्मार्ट भी... अंग्रेजी भी बोल लेती हूँ - ए बी सी डी... आई एम फाइन, थैंक यु... गुडनाइट... इस बार तो मैं जरूर पसंद कर ली
जाऊँगी माँ!
बरामदे में अचेत पड़ी अपनी माँ को हिलाती हुई लावण्य लगातार बोले जा रही थी। साथ में रो भी रही थी, हँस भी रही थी। मगर यह सब कहते हुए उसके चेहरे पर या आवाज में
कोई उम्मीद नहीं थी... शायद यह गहरी निराशा या अवसाद से आगे की कोई चीज थी जहाँ आज वह पहुँचा दी गई थी।
भैया जल्दी-जल्दी अपने मोबाइल पर डॉक्टर का फोन नंबर मिला रहे थे। भाभी अचेत पड़ी माँ के चेहरे पर पानी के छींटे मार रही थी। उधर ड्राइंग रूम में मिठाई खाते हुए
लड़कीवाले लड़की के इंतजार में अधीर हुए जा रहे थे। उन्हें आज यहाँ से निबटकर एक दूसरी जगह भी लड़की देखने जाना था। उन्हें बताया गया है, वहाँ शानदार लंच का
बंदोबस्त किया गया है।