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कविता

24 फरवरी 1960 (बुधवार)

फणीश्वरनाथ रेणु


सुबह-सुबह वर्षा -
मन हर्षा
सूरज सिर्फ दो घंटे
टिका - किंतु प्रचंड रूप से।
फिर बदली उमस
हवा गुम्म!
सावन की पुरवैया
या पछवैया - क्या चले
क्या चले?
हठात पछिया हवा का
एक झोंका
आया - नारियल-सुपारी-बाँस
की फुनगियों पर
रुकी थमी हवा हरहराती -
तोते का बच्चा टॉय-टॉय
कर रोता उड़ता
फिरता!
पाट-धान के हरे-भरे
डेढ़ सेर चावल
घर में हैं, पिछवाड़े में कद्दू
...आज कोई काम नहीं होगा...
मछलियों के शिकार के सिवा।
मालिक ! आज माफ करो
घरवाली का पैर भारी है
मछली खाने को जी हुआ है।
...जी, जी!
बाबा रामचंदर
भगवान थे
हम दास हैं, सेवक हैं
हमारी स्त्रियाँ सोने के हिरण
की खाल खिंचवाकर
नहीं मँगवाएँगी।
दो-जीवा है
बेचारी के मन में
मछली भात खाने की साध है।
डेढ़ सेर चावल घर में है
पिछवाड़े में कद्दू!

 


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