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कविता

एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता

शमशेर बहादुर सिंह


एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता
पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है

कितनी ऊँची घासें चाँद-तारों को छूने-छूने को हैं
जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है
अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ

फिर क्‍यों
          दो बादलों के तार
उसे महज उलझा रहे हैं?

(1956)
 

 


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