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(अल्जीरियाई वीरों को समर्पित)
लगी हो आग जंगल में कहीं जैसे,
हमारे दिल सुलगते हैं।
हमारी शाम की बातें
लिये होती हैं अक्सर जलजले महशर के; और जब
भूख लगती है हमें तब इन्कलाब आता है।
हम नंगे बदन रहते हैं झुलसे घोंसलों में,
बादलों-सा
शोर तूफानों का उठता है -
डिवीजन के डिवीजन मार्च करते हैं,
नये बमबार हमको ढूँढ़ते फिरते हैं...
सरकारें पलटती हैं जहाँ हम दर्द से करवट बदलते हैं !
हमारे अपने नेता भूल जाते हैं हमें जब,
भूज जाता है जमाना भी उन्हें, हम भूल जाते हैं उन्हें खुद।
और तब
इन्कलाब आता है उनके दौर को गुम करने।
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