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मौन संध्या का दिये टीका
रात
काली
आ गयी :
सामने ऊपर, उठाये हाथ-सा
पथ बढ़ गया।
घेरने को दुर्ग की दीवार मानो -
अचल विंध्या पर
कुंडली खोली सिहरती चाँदनी ने
पंचमी की रात।
घूमता उत्तर दिशा को सघन पथ
संकेत में कुछ की गया।
चमकते तारे लजाते हैं
प्रेरणा का दुर्ग।
पार पश्चिम के, क्षितिज के पार
अमित गंगाएँ बहाकर भी
प्राण का नभ धूल-धसित है।
भेद ऊषा ने दिये सब खोल
हृदय के कुलभाव,
रात्रि के, अनमोल।
दुःख कढ़ता सजल, झलमल।
आँख मलता पूर्व-स्रोत।
पुनः
पुनः जगती जोत।
X X
घिर गया है समय का रथ कहीं।
लालिमा से मढ़ गया है राग।
भावना की तुंग लहरें
पंथ अपना, अंत अपना जान
रोलती हैं मुक्ति के उद्गार।
(1946)
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