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कविता

न पलटना उधर

शमशेर बहादुर सिंह


न पलटना उधर
          कि जिधर ऊषा के जल में
          सूर्य का स्तंभ हिल रहा है
          न उधर नहाना प्रिये!,

जहाँ इंद्र और विष्‍णु एक हो
         अभूतपूर्व ! -
यूनानी अपीली के स्‍वरपंखी कोमल बरबत से
         धरती का हिया कँपा रहे हैं
         - और भी अभूतपूर्व ! -
         उधर कान न देना प्रिये
         शंख-से अपने सुंदर कान
         जिनकी इंद्रधनुषी लवें
                 अधिक दीप्‍त हैं।

उन सँकरे छंदों को न अपनाना प्रिये
(अपने वक्ष के अधीर गुन-गुन में)
         जो गुलाब की टहनियों-से-टेढ़े-मेढ़े हैं
         चाहे कितने ही कटे-छँटे लगें, हाँ।

         उनमें वो ही बुलबुलें छिपी हुई बसी हुई हैं
         जो कई जन्‍मों तक की नींद से उपराम कर देंगी
         प्रिये !
         एक ऐसा भी सागर-संगम है
                                देवापगे !
         जिसके बीचोंबीच तुम खड़ी हो
         ऊध्‍वस्‍व धारा
आदि सरस्‍वती का आदि भाव
उसी में समाओं प्रिये !


मैं वहाँ नहीं हूँ।

(1960)

 


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