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कविता

हार-हार समझा मैं

शमशेर बहादुर सिंह


हार-हार
समझा मैं तुमको
अपने पार।

हँसी बन
      खिली साँझ -
बुझने को ही।

एक हाय-हाय की रात
बीती न थी,
कि दिन हुआ।

हार-हार ...

(1941)

 


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