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पपड़ीले पत्थर की पीठ पर
साँप केंचुली उतारता रहा :
लहर जहाँ काँस में, सिवार में
पेट उचकाती-सी
अंडों के छिलके उतारती-सी
हिलती ही रही लगातार -
नशे का खुमार लिये हुए वहाँ हवा में
चिनक-चिनककर मीठा दर्द-सा
होता ही रहा। और
एक मौन, संध्या के सपनों में
सोता ही रहा वहाँ
कवि-सा।
(1943)
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