शिला का खू न पीती थी वह जड़ जो कि पत्थर थी स्वयं। सीढ़ियाँ थीं बादलों की झूलतीं टहनियों-सी। और वह पक्का चबूतरा, ढाल में चिकना : सुतल था आत्मा के कल्पतरु का ?
(1942)
हिंदी समय में शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ
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