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कहानी

अंगारे (कथा-संकलन)

अनुवाद - शकील सिद्दीकी

अनुक्रम

अनुक्रम आज भी सुलग रहे हैं छह दशक पुराने अंगारे     आगे

उर्दू के अत्यंत चर्चित तथा विवादास्‍पद कहानी-संग्रह ‘अंगारे’ का हिंदी में अनुवाद करके मुझे आत्मिक सुख प्राप्‍त हुआ है, जैसे किसी पुराने कर्ज को चुकाने का अवसर मिल गया हो। उन विचारों और विश्‍वासों से मैं बँधा रहा हूँ, ‘अंगारे’ कह कहानियाँ उनका प्रखर प्रतिनिधित्‍व करती हैं! ‘अंगारे’ नवंबर 1932 में छपी तथा ब्रिटिश शासन द्वारा मार्च 1933 में जब्‍त हो गई।

मुझे यह सोच कर अक्‍सर दु:ख होता है कि भारत के प्रगतिशील जनवादी साहित्यिक आंदोलन ने ऐतिहासिक महत्‍व के इस जरूरी संग्रह की ओर अपेक्षित ध्‍यान नहीं दिया! न तो उर्दू में इसके पुनर्प्रकाशन और न ही दूसरी भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद की कोशिश हुई, जब कि प्रगतिशील जनवादी आंदोलन की पूर्वपीठिका तैयार करने में इस संग्रह ने महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे जुड़े कहानीकारों ने वामपंथी तथा प्रगतिशील आंदोलन के विकास और विस्‍तार में अप्रतिम योगदान दिया!

इसे संयोग मानिए या प्रगतिशील आंदोलन की विडंबना कि मार्च 1933 में प्रतिबंधित होने के बाद भारत में इसका प्रथम प्रकाशन हिंदी में हो रहा है! मेरे अनुवाद (दिसंबर 1990) के उपरांत लंदन में इसके पुनर्प्रकाशन की सूचना अवश्‍य मिली! यह साहसपूर्ण कार्य पाकिस्‍तान की एक लेखिका शबाना महमूद (लंदन) के प्रयासों से संभव हो पाया! इस संस्‍करण का विशिष्‍ट पक्ष वह परिशिष्‍ट है, जिसमें इस संग्रह के छपने के बाद उठ खड़े हुए तीव्र विवाद तथा ब्रिटिश शासन द्वारा इसे जब्‍त करने संबंधी कार्यवाही के मुतआलिक सामग्री संकलित की गई है! यह समस्‍त सामग्री ब्रिटिश इंडिया लाइब्रेरी से ली गई है। हिंदी संस्‍करण के साथ भी यह समूची सामग्री जरूरी इजाफों के साथ शामिल की जा रही है! इस प्रकार 1987 में लंदन से छपे उर्दू संस्‍करण की अपेक्षा प्रस्‍तुत हिंदी संस्‍करण अधिक महत्‍वपूर्ण हो गया है! इससे पाठक चौथे दशक के आरंभिक वर्षों में इस संग्रह द्वारा एक ठहरे हुए समाज में मचाई गई हलचल का अनुमान लगा सकेंगे!

‘अंगारे’ या अंगारे जैसे किसी संग्रह की कल्‍पना का आधारस्‍थल लंदन था या लखनऊ, यह कह पाना कठिन है परंतु यह तो कहा ही जा सकता है कि प्रगतिशील लेखक संघ के समान ही लंदन ‘अंगारे’ की कल्‍पना की भी जन्‍मभूमि है! रोचक संयोग यह कि ‘अंगारे’ की कल्‍पना जिस समय लखनऊ में मूर्त रूप में थे, वह वहाँ विधि की उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त करने गए हुए थे! तो क्‍या लंदन में बैठे-बैठे उन्‍होंने ‘अंगारे’ का संपादन और प्रकाशन संभव बना दिया? निश्चित रूप से नहीं! वह सन् 32 की भीषण गर्मियों के दिन थे जब सज्‍जाद जहीर जिन्‍हें लोग प्‍यार से बन्‍ने भाई कहते थे, और जो उच्‍च न्‍यायालय के तत्‍कालीन न्‍यायाधीश सर वजीरहसन के सुपुत्र थे, लंबी छुट्टी पर लखनऊ आए! ‘अंगारे’ के दूसरे प्रमुख कहानीकार अहमद अली, उन दिनों लखनऊ विश्‍वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से संबद्ध थे। वह भी आक्‍सफोर्ड के छात्र रह चुके थे, बन्‍ने भाई और उन्‍होंने लगभग एक ही साथ कहानियाँ लिखना शुरू की थीं! साहित्‍य को ले कर दोनों के विचारों में भी काफी समानता थी! योरोपीय भाषाओं के साहित्‍य का दोनों पर ही गहरा प्रभाव था। दोनों ही उर्दू कहानी के प्रचलित स्‍वरूप तथा समाजी सरतेहाल से बहुत गहरे तक असंतुष्‍ट थे। साहित्‍य के सामर्थ्‍य को वे अच्‍छी तरह समझ रहे थे, भारतीय समाज को किस तरह के साहित्‍य की जरूरत है, इसे ले कर उनके मन में कोई द्वंद नहीं था! मुस्लिम समाज को ले कर उनकी चिंता अधिक सघन थी! खास कर स्‍त्री की त्रासदपूर्ण हालत को ले कर! इसलिए व खास अंदाज व तेवर की कहानियों का एक संकलन प्रकाशित करवाना चाहते थे! परंतु संकलन हेतु निर्धारित पृष्‍ठों भर कहानियाँ उनके पास नहीं थीं! सज्‍जाद जहीर ने आक्‍सफोर्ड के ही एक पूर्व छात्र तथा कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ता महमूद जफर की एक कहानी (जवामंर्दी) का अंग्रेजी से उर्दू में अनुवाद किया, कहानी ‘अंगारे’ के प्रस्‍तावित सोच के एकदम अनुरूप थी! सामग्री अब भी कम थी।

उत्‍तर भारत में स्‍त्री शिक्षा को आंदोलन की गति देने वाले, अलीगढ़ वीमेन्‍स कॉलेज के संस्‍थापक दो महिला पत्रिकाओं के संपादक शेख अब्‍बुल्‍लाह (अलीगढ़) की सुपुत्री रशीद जहां उन दिनों दिल्‍ली के लेडीहार्डिंग कालेज से डॉक्‍टरी की शिक्षा पूरी करने के बाद लखनऊ (कैसरबाग) में प्रेक्टिस कर रही थीं, अपने धारदार व्‍यक्तित्‍व तथा साहित्यिक रजहान के कारण वह बहुत जल्‍दी लखनऊ के बौद्धिक व सुरुचिपूर्ण संपन्न वर्ग में लोकप्रिय हो गयीं! उनसे सम्‍पर्क किया गया और उनकी एक कहानी ‘दिल्‍ली की सैर’ तथा उनका बहुचर्चित एकांकी ‘पर्दे के पीछे’ संकलन में शामिल किया गया! उनकी कहानी अपेक्षाकृत कमजोर है, पर एकांकी न सिर्फ अंगारे की केंद्रीय सोच बल्कि स्‍वयं रशीद जहां की समझ और दृष्टि तथा तत्‍कालीन सामाजिक परिदृश्‍य को ले कर उनके मन में पैठी गहरी बेचैनी का समर्थ प्रति‍निधित्‍व करता है! रशीद जहां स्‍त्री मुक्ति की मुखर प्रवक्‍ता थीं! उनकी इस वैचारिक पृष्‍ठभूमि का संकेत उनकी पहली कहानी ‘कलमा’ से भी मिलता है जो आई. टी. कॉलेज (लखनऊ) की वार्षिक पत्रिका में छपी थी!

इस प्रकार नौ कहानियों तथा एक एकांकी का संकलन नवंबर 1932 में लखनऊ के विक्‍टोरिया स्‍ट्रीट स्थित निजामी प्रेस से प्रकाशित हुआ, मूल्‍य रखा गया चार आना तथा प्रतियाँ छपीं एक हजार।

‘अंगारे’ क्‍या छपी तूफान उठ खड़ा हुआ। ‘अंगारे’ की कहानियाँ जिन-जिन लोगों की सत्‍ता और स्‍वार्थ पर चोट कर रही थीं, जिन चेहरों पर से नकाब हटा रही थीं, वे सक्रिय हो उठे! संकलन पर आरोप लगाया गया कि यह इस्‍लाम और मुसलमानों के खिलाफ यूरोपीय (अंग्रेजी) शिक्षा के नशे में चूर चंद सरफिरे नास्तिक नौजवनों की सुनियोजित साजिश है! वे इस्‍लाम और इस्‍लाम की शिक्षा देने वालों को बदनाम करना चाहते हैं, इससे मुसलमानों की भावनाएँ आहत हुई हैं, तथा इस संकलन की कहानियाँ और एकांकी नौजवानों के चरित्र पर नकारात्‍मक प्रभाव डाल सकती हैं!

सरफराज (लखनऊ) तथा मदीना (बिजनौर) ने ‘अंगारे विरोधी अभियान’ को हवा देने में खास भूमिका अदा की। धर्म के नाम पर भोली जनता, विशेषरूप से स्‍त्री देह का शोषण करने वाली तथा स्थितिवादियों को अच्‍छा अवसर हाथ आ गया था।

‘’देख लो अंग्रेजी भाषा का कमाल, खुदा और रसूल को भी नहीं बख्‍शा जा रहा है।‘’

‘’और यह औरतों की पढ़ाई, रशीद जहां बनाना लड़कियों को स्‍कूल भेज कर।‘’

आज जो कुछ ढाका में घटित हो रहा है। तस्‍लीमा नसरीन को ले कर, साठ साल पहले लखनऊ में वो सब घटा था। थोड़ा छोटे पैमाने पर।

शासन से ‘अंगारे’ के प्रसार और विक्रय पर प्रतिबंध लगाने तथा इसके कहानीकारों को दंडित करने की माँग की गई। इस संबंध में शिया कॉफ्रेंस ने एक प्रस्‍ताव भी पारित किया। (फरवरी 1933)

अंगारे विरोधी अभियान का प्रमुख निशाना बनी डॉ. रशीद जहां। धार्मिक मान्‍यताओं की आड़ में स्‍त्री देह के शोषण और उसे जिंदगी के अवदानों से वंचित रखने के विरूद्ध एक मुसलमान स्‍त्री के विद्रोह को धर्म का निहित स्‍वार्थ के लिए इस्‍तेमाल करने वाले लोग स्‍वीकार नहीं कर पा रहे थे! रशीद जहां को ‘नाक काट लेने’ तथा ‘चेहरा बिगाड़ देने’ की धमकियाँ दी गयीं, उनका तो नाम ही पड़ गया था, ‘अंगारे वाली रशीद जहां’।

विरोध की उग्रता का कुछ अनुमान ‘जमाना’ मई 1933 में प्रकाशित मुंशी दया नारायण निगम की उस टिप्‍पणी से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्‍होंने इस मुहिम को ‘तुफाने अजीम’ की संज्ञा दी! अहमद अली के अनुसार विरोध इतना उग्र था कि कुछ अर्सा तक कान पड़ी आवाज तक सुनाई न देती थी।

‘अंगारे’ के कहानीकारों की सहयात्री तथा उस सारे मंजर की चश्‍मदीद गवाह, ‘हाजरा बेगम’ (जोहरा सहगल की बड़ी बहन) का बयान है कि, ‘’अंगारे शाया करते वक्‍त खुद सज्‍जाद जहीर को अन्‍दाजा नहीं था कि यह एक नई अदबी राह का संगेमील (मीलस्‍तंभ) बन जाएगा। वह खुद तो लंदन चले गए लेकिन यहाँ तहलका मच गया, पढ़ने वालों की मुखालिफत इस कद्र बढ़ी कि मस्जिदों में ‘रशीद जहां अंगारे वाली’ के खिलाफ वायफ (धार्मिक उपदेश) होने लगे, फतवे दिए जाने लगे और अंगारे जब्‍त हो गई।‘’

शबना महमूद (लंदन) के अनुसार।

‘’संयुक्‍त प्रांत की एसेंबली में इस किताब को ले कर सवाल उठाए गए, इस किताब के लेखकों की निंदा में पर्चे बाँटे गए तथा कानूनी कार्यवाही करके लेखकों को सजा दिलाने हेतु मुकदमों के लिए फंड जमा किए गए।‘’

आखिरकार यू. पी. गवर्नर कौंसिल में इस विषय पर बहस की गई और 15 मार्च 1933 को आई.पी.सी. की धारा 295 ए के अंतर्गत पुस्‍तक ‘अंगारे’ को जब्‍त करने के आदेश दे दिए गए। फलस्‍वरूप सरकारी रेकार्ड के लिए 5 प्रतियाँ छोड़ कर शेष सभी उपलब्‍ध प्रतियों को जलाने की व्यवस्‍था की गई!

किताब की जब्‍ती की बाजाब्‍ता ऐलान 25 मार्च 1933 के सरकारी गजट में किया गया।

अंगारे के लेखकों को सामाजिक बहिष्‍कार की स्थिति का सामना करना पड़ा। यहाँ त‍क कि लेखक – बिरादरी में भी इन कहानीकारों के पक्ष में खड़े होने वालों की संख्‍या नहीं के बराबर थी। बाबा ए उर्दू मौलवी अब्‍दुल हक ने अवश्‍य इस संकलन का स्‍वागत किया! मुंशी प्रेमचंद, हसरत मोहनी तथा नेयाज फतेहपुरी की इस संबंध में कोई टिप्‍पणी नहीं मिलती। जब कि ये सभी मानवीय मूल्‍यों व आधुनिकता के पक्ष में धर्मान्‍धता, रूढ़िवाद और हर तरह के शोषण के खिलाफ अपने-अपने स्‍तर पर लगातार सक्रिय थे!

दरअसल अंगारे विरोधी मुहिम की मार मात्र चार कहानीकारों तक सीमित नहीं थी, पर अभिव्‍यक्ति की आजादी, तकलीफ के बयान की स्‍वतंत्रता तथ इंसानी जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिशों पर शहीद हमला था! अत: प्रमुख सवाल यह था कि ‘अंगारे’ के कहानीकार इस हमले के आगे अपने सर खम करते हैं या अपने लिखे शब्‍दों और वक्‍त विचारों के पक्ष में खड़े होते हैं तो मजबूरी में कँपकपाते हुए या अपेक्षित समूची दृढ़ता के साथ?

इतिहास के अत्यंत नाजुक मोड़ पर अंगारे के कहानीकारों ने सही फैसला किया। उन्‍होंने 15 अप्रैल 1933 को दिल्‍ली से एक प्रेस बयान जारी करके इस संकलन की कहानियों के लिए किसी प्रकार की क्षमा याचना की संभावना से साफ इंकार किया तथा इस तरह के लेखन को निर्बाधगति से जारी रखने की घोषणा की! निश्‍चय ही भारतीय साहित्‍य के इतिहास का यह अत्यंत महत्‍वपूर्ण बयान था, जिसे महमूदुज्‍जफर ने लिखा और जो ‘लीडर’ दैनिक (इलाहाबाद) में अंगारे के पक्ष में शीर्षक से प्रकाशित हुआ। बयान में कहा गया था।

‘’अब से पाँच महीने पहले चार नौजवान कलमकारों ने जिनमें एक खातून भी शामिल हैं, उर्दू में अंगारे के शीर्षक से मुख्‍तसर कहानियों का एक संकलन प्रकाशित किया था।‘’

किताब का संक्षिप्‍त विवरण, उसके विषय, उसकी वजह से बरपा होने वाले हंगामों का जिक्र करने के बाद इस बयान में कहा गया था।

‘’इस किताब के लेखक इस संबंध में किसी प्रकार की क्षमा याचना के इच्‍छुक नहीं हैं, वो इसे वक्‍त के सुपुर्द करते हैं वो किताब के प्रकाशन के परिणामों से बिलकुल भयभीत नहीं हैं और इसके प्रसार एवं इसी तरह की दूसरी कोशिशों के प्रसार के अधिकार का समर्थन करते हैं, वो मूल रूप में समूची मानवता और विशेष रूप से भारतीय अवाम के लिए महत्‍वपूर्ण उद्देश्‍यों के सिलसिले में आलोचना की आजादी तथा अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार का खुला समर्थन करते हैं। इस क्रम में ‘अंगारे’ के लेखकों ने इस्‍लाम का इंतखाब इसलिए नहीं किया कि उन्‍हें इस्‍माल से कोई खास चिढ़ है बल्कि इसलिए कि वो खुद इस्‍लामी समाज में जन्‍में हैं और अपने आपको इस समाज के बारे में चर्चा करने का ज्‍यादा अहल समझते हैं! यहाँ उन्‍हें बुनियादी मूल्‍यों का ज्‍यादा अंदाजा था। किताब का या उसके लेखकों का जो भी हस्‍त्र हो हमें यकीन है कि दूसरे लिखने वाले हिम्‍मत न हारेंगे। हमारा व्‍यावहारिक प्रस्‍ताव यह है कि फौरी तौर पर ‘प्रोग्रेसिव राईटर्स लीग’ का गठन किया जाए! जो समय-समय पर इस तरह की दूसरी रचनाएँ अंग्रेजी व अन्‍य भाषाओं में प्रकाशित करें। हम उन तमाम लोगों से जो हमारी इस ख्‍याल से सहमत हो, अपील करते हैं कि वो हमसे राब्‍ता कायम करें और अहमद अली से खतो किताबत करें।‘’

ऐतिहासिक महत्‍व के इस बयान में दो तथ्‍य साफ उभर कर सामने आते हैं। पहला यह कि प्रचंड विरोध तथा भयानक निंदा के बावजूद ‘अंगारे’ के कहानीकार किंचित विचलित नहीं हुए, धारदार हथियारों जैसे खतरनाक क्षण उन्‍हें भयभीत नहीं कर सके। साथ ही मानवता के हिम में ‘अंगारे’ की परंपरा को आगे बढ़ाने हेतु वे दृढ़प्रतिज्ञ नजर आते हैं। यद्यपि लेखन के स्‍तर पर रशीद जहां के अलावा इस परंपरा को कोई और आगे नहीं बढ़ा सका! किसी हद तक अहमदअली ने भी अपनी बाद की कहानियों में ‘अंगारे’ की कहानियों जैसी धार पैदा करने की कोशिश की! सज्‍जाद जहीर और महमूदुज्‍जफर ‘अंगारे’ की पृष्‍ठभूमि में सक्रिय विचारधारा तथा उसकी प्रतिबद्धताओं से तो जीवन की अंतिम साँसो तक बँधे रहे पर लेखन के स्‍तर पर वे इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ा सके! दोनों का समय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के कामों में ज्‍यादा गुजरने लगा! सज्‍जाद जहीर की तो और भी व्‍यस्‍तताएँ थीं।

दूसरा यह कि अंगारे के पक्ष में तथा इन जैसी रचनाओं के प्रचार-प्रसार हेतु ‘प्रो‍ग्रेसिव राइटर्स लीग’ की स्‍थापना का प्रस्‍ताव ही वस्‍तुत: अप्रैल 1936 में ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स-एसोसिएशन’ के गठन का आधार बिन्‍दु बना। यह मात्र संयोग नहीं था कि इन कहानीकारों ने पी.डब्‍लू.ए. के गठन तथा उसके स्‍थापना सम्‍मेलन (9-10 अप्रैल 1936) के आयोजन में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। सम्‍मेलन के सफल आयोजन के लिए रशीद जहाँ के आग्रह पर प्रेमचंद का सम्‍मेलन का सभापतित्‍व स्‍वीकारने से इंकार न कर पाना प्रगतिशील आंदोलन के इतिहास की अत्यंत महत्‍वपूर्ण घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि रशीद जहाँ और महमूदुज्‍जफर (जो बाद में दांपत्य जीवन में बँध गए थे) अपना सब कुछ उन मूल्‍यों और विश्‍वासों के लिए समर्पित कर दिया, प्रगतिशील आंदोलन जिन्‍हें अपना बुनियादी लक्ष्‍य बना कर चला था! सज्‍जाद जहीर तो प्रगतिशील आंदोलन का प्रतीक ही बन गए थे।

इससे यह तात्‍पर्य नहीं लेना चाहिए कि प्रगतिशील लेखक संघ के गठन तथा प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत की प्रेरणा का एकमात्र स्‍त्रोत ‘अंगारे’ ही था। तीसरे दशक के अंतिम वर्षों तक सघन हो आई नव जागरण की लहर, राष्‍ट्रवादी चेतना का विकास, जनांदोलन की तेज होती धार, ‘स्‍व’, के प्रति अभियान का विस्‍तार पाता बोध, विदेशी गुलामी तथा सामाजिक सड़ांध से मुक्ति पाने की छटपटाहट, मार्क्‍सवादी विचारधारा का प्रसार एवम् समाज के प्रति लेखक की जवाबदेही का बढ़ता एहसास, वो प्रमुख कारण थे जो भारत में प्रगतिशील आंदोलन की पृष्‍ठभूमि तैयार कर रहे थे!

‘अंगारे’ ने अपने समय में त‍था बाद के सालों में भी बहुत लोगों को आन्‍दोलित किया। उसने सआदत हसन मंटो, इस्‍मत चुगताई व हसन असकरी जैसे समर्थ रचनाकारों को साहित्‍य के लिए त्‍याज्‍य मान लिये गए पर जीवन के अनिवार्य विषयों पर कहानियाँ लिखने का साहस दिया, उर्दू में धार्मिक व सामाजिक रूढि़यों के खिलाफ प्रभाव निश्‍चय ही हिंदी कहानी पर भी पड़ा! स्‍त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित कहानियों को नया आयाम यहीं से मिलता है बल्कि सामाजिक यथार्थ के प्रतिपादन में परंपरा का निषेध भी ‘अंगारे’ से ही प्रारंभ होता है! ‘कफन’ जैसी कहानी इसी निषेधात्‍मक ‘रवैये’ की उत्‍पत्ति है!

इस दावे में काफी दम है, कि ‘अंगारे, से कहानी की एक नई धारा का जन्‍म होता है! या यह कि ‘अंगारे’ नई कहानी का प्रस्‍थान बिंदु है!

अंगारे की कहानियाँ आज भी बेचैन करती हैं, धार्मिक उन्‍माद तथा सामाजिक रूढ़ियों के विरूद्ध पाठकों को आंदोलित करने की सामर्थ्‍य अभी उनमें बाकी है। बुरे की निर्भीक आलोचना का साहस वो अब भी देती हैं!

अर्थात ‘अंगारे’ आज भी प्रासंगिक है!

मुझे आशा है कि इस संग्रह का हिंदी अनुवाद‍ जिंदगी को सुंदर बनाने की मुहिम तथा धर्मनिर्पेक्ष जनाभिमान से जुड़े सामान्‍य पाठकों तथा रचनाकारों को संबल दे सकेगा! निश्‍चय ही इस संग्रह का पुस्‍तक रूप में प्रकाशन किसी समुदाय विशेष की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए नहीं किया जा रहा है।

‘अंगारे’ के हिंदी अनुवाद तथा इसके साथ संलग्र सामग्री के लिए मैं युवा पत्रकार श्री कमाल एच. खान तथा वरिष्‍ठ कथाकार श्री रामलाल का आभारी हूँ। पुस्‍तक को प्रस्‍तुत रूप देने में डॉ. अशोक त्रिपाठी का परामर्श बहुत काम आया, मैं उन्‍हें धन्‍यवाद देता हूँ। मैं श्री शिवकुमार सहाय के प्रति भी धन्‍यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्‍होंने ‘अंगारे’ जैसी विवादास्‍पद पुस्‍तक के हिंदी अनुवाद को ‘परि‍मल प्रकाशन’ से छापना स्‍वीकार किया!

- शकील शिद्दीकी


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