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					सुनिये! 
					आखिर यदि जलते हैं तारे 
					किसी को तो होगी उनकी जरूरत? 
					कोई तो चाहता होगा उनका होना? 
					कोई तो पुकारता होगा थूक के इन छींटों को 
					हीरों के नामों से? 
					और दोपहर की धूल के अंधड़ में, 
					अपनी पूरी ताकत लगाता 
					पहुँच ही जाता है खुदा के पास, 
					डरता है कि देर हुई है उससे, 
					रोता है, 
					चूमता है उसके मजबूत हाथ, 
					प्रार्थना करता है 
					कि अवश्य ही रहे कोई-न-कोई तारा उसके ऊपर। 
					कसमें खाता है 
					कि बर्दाश्त नहीं कर सकेगा तारों रहित अपने दुख। 
					और उसके बाद 
					चल देता है चिंतित 
					लेकिन बाहर से शांत। 
					कहता है वह किसी से, 
					अब तो सब कुछ ठीक है ना? 
					डर तो नहीं लगता? 
					सुनिये! 
					तारों के जलते रहने का 
					कुछ तो होगा अर्थ? 
					किसी को तो होगी इसकी जरूरत? 
					 
					जरूरी होता होगा 
					हर शाम छत के ऊपर 
					चमकना कम-से-कम एक तार का? 
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