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मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता हूँ
कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है
हर वक्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है
जिंदगी बेहद जगह माँगती है
फैलने के लिए
इसे फैसले को जरूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुँचना चाहता हूँ अंतरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...
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