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कविता

जन्म-कुंडली

कुँवर नारायण


फूलों पर पड़े-पड़े अकसर मैंने
ओस के बारे में सोचा है -
         किरणों की नोकों से ठहराकर
         ज्योति-बिंदु फूलों पर
         किस ज्योतिर्विद ने
         इस जगमग खगोल की
         जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?
         फिर क्यों निःश्लेष किया
         अलंकरण पर भर में ?
         एक से शून्य तक
         किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?

और फिर उनको भी सोचा है -
        वृक्षों के तले पड़े
        फटे-चिटे पत्ते...
        उनकी अंकगणित में
        कैसी यह उधेडबुन ?
        हवा कुछ गिनती है :
        गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती
        और कहीं पर रखती है।
        कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर
        यों ही फेंक देती है मरोड़कर... ।

        कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ - अंतरिक्ष -
        गोदती चली जाती... वृक्ष... वृक्ष... वृक्ष...

 


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