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लोककथा

बनिए का चाकर

विजयदान देथा


कोल्हू का बैल और बनिए का चाकर हर वक्त फिरते हुए ही शोभा देते हैं।

किसी एक सुहानी वर्षा की बात है कि बादलों की मधुर-मधुर गरज के साथ झमाझम पानी बरस रहा था। चौक वाली बरसाली में सेठ जी के पास ही उनका नौकर मौजूद था। पानी बिना रुके बह रहा है और यह ठूँठ की तरह खड़ा है, कैसे बर्दाश्त होता!

चौक में पत्थर की पनसेरी पड़ी थी। सेठ जी इसी चिंता में खोए थे कि नौकर को क्या काम बताया जाए। यह तो मालिक की तरह ही आराम कर रहा है!

पनसेरी पर नजर पड़ते ही तत्काल उपाय सूझा, चाकर की तरफ मुँह करके हुक्म सुनाया, "खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है, यह पनसेरी अन्दर ले आ, बेचारी पानी में भीग रही है।"


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