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कविता

चीख

रति सक्सेना


मेरे गले से निकली
चीख
नही पाती है जगह, जमीन पर,
अंबर पर
तो
दुबक जाती है
मेरी छातियों में,
मेरे उदर और जंघाओं में
मेरे गर्भाशय में

वे डर जाते हैं
मेरी चीख से
नाखूनों से
उधेड़ देते हैं खाल
और निकाल मेरे गर्भाशय को
गाड़ देते हैं

अब मेरा गर्भाशय
इस जमीन पर
खड़ा होगा
बन जायेगा दरख्त
उगायेगा
करोड़ों चीखों को

नकली सभ्यता के किले की
चूले हिलाने के लिये
एक चीख मुकम्मिल है

 


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