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कविता

मौसम बनते जाना

रति सक्सेना


अजीब सा मौसम था
लगा कि आसमान का सीना भारी है
न खुल कर बरस रहा था और ना ही चमक रहा था
मेरे घुटने का दर्द गुड़हल के फूल सा खिलने लगा
पैरों की उँगलियाँ सुन्न होने लगीं
मैंने बाहर निकलने से पहले मोजे निकाल पहन लिए,
गले में शाल डाल लिया।
हवा और पानी की बूँदें
आपस में गुत्थम-गुत्था थीं, पेड़ों की शाखाएँ
बिल्ली के बच्चों सी सिर झुकाएँ खड़ी थीं
आसमान काफी नीचे उतर आया था

तभी पीठ पर किसी ने छुआ
मुड़ कर देखा, चालीस साल पहले का वक्त खड़ा था -

तपन में बारिश की मनौतियाँ,
ठंडक के लिए सूखता गला, और अन्होरियों से भरी
गर्दन, काले मेघा पानी दे, पानी दे गुड़ धानी दे

मै थमी और वापिस लौटी, मोजे को उतार फेंका
चालीस पहले की तपन को शाल बन ओढ़ कर
दरख्तों के नीचे गुजरती, बूँदों में भीगती हुई
मैं खुद मौसम बन गई

 


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