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कविता

तेरे कूचे को वो बीमारे-ग़म दारुश्शफ़ा समझे

मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़


तेरे कूचे को वो बीमारे-ग़म दारुश्शफ़ा समझे
अज़ल को जो तबीब और मर्ग को अपनी दवा समझे

सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वो तो उस बुत से ख़ुदा समझे

समझ ही में नहीं आती है कोई बात 'ज़ौक़' उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे


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हिंदी समय में मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ की रचनाएँ