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कविता

तुममें खिलतीं स्त्रियाँ

वाज़दा ख़ान


कभी फूल कभी पत्ती कभी डाल बन
तुममें खिलतीं स्त्रियाँ
कभी बादल कभी इंद्रधनुष बन

तुम्हारे भीतर कई कई रंग
गुंजार करती स्त्रियाँ
आसमान में उड़ती सितारे ढूँढ़तीं
प्रेम में पड़ती स्त्रियाँ
समंदर में समाती नदी बनतीं
तेज धूप में डामर की सड़कों पर चलती
सड़क बनाती स्त्रियाँ
अँधेरी बावड़ी में सर्द पानी और जमी काई बनती
वस्त्रों से कई कई गुना
लांछन पहनती स्त्रियाँ
बिंदी माथे पर सजा दुख की लकीरों को
चेहरे की लकीरों में छुपाती स्त्रियाँ
सीवन उधड़ी और फीकी पड़ती उम्मीदों को
पुराने किले में कैद करती
बार बार नमी वाले बादलों से टकराती स्त्रियाँ
अपनी मुट्ठियों में रोशनी भरने पर भी
जमीन पर टप्पे खाते संबंधों को
ज्वार भाटा में तब्दील होते देखतीं
खुद को तमाम आकारों धूसर शेड्स से
मुक्त करने की कोशिश करती स्त्रियाँ
उन तमाम शब्दों के अर्थ में
जिनमें वे 'मोस्ट हंटेड और वॉन्टेड' हैं
(शिकार और चाहत)
में घुली कड़वाहट को निगलने की
कोशिश करती स्त्रियाँ
क्या सोचती हैं तुम्हारे बारे में
मुस्कराती हैं दबी दबी हँसी
हँसती हैं जब स्त्रियाँ
कायनात की तमाम
मुर्दा साँसों में इत्र उगाती हैं स्त्रियाँ।

 


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