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कविता

रुलाई

वाज़दा ख़ान


अंतर्मन में रुलाई
गोलाई में उमड़ती घुमड़ती है

इत्तेफाक है चाँद भी गोल है
पृथ्वी भी और बाकी सभी ग्रह भी

बनाती हूँ रास्ता उन्हीं ग्रहों के बीच
रुलाइयों को बहने के लिए
बहता बहता रुदन अपने दीवानेपन के साथ
शायद ख्याल पा जाए तुम्हारे मन में
कोई जिंदा तहरीर बने।

 


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