हम पत्थर हैं, चुने जाएँगे जल्दी किसी दीवार में
किसी महल, छानी, कारा या मसजिद, किसी मजार में।
एक पत्थर पर आलेख
हीरे की शोभा देखी जाती है उसके सेट में,
इनसान की घर में।
शादी हो गई - अब घर बनाना चाहिए।
मेरे भावों के प्रासाद बहुत बड़े-बड़े हैं, मेरे चिंतन की मीनारें, मेरी कहानियों के भवन बहुत बड़े आकार के हैं, मेरी कविताओं के नुकीले सिरे बहुत ऊँचे-ऊँचे हैं... लीजिए, मैं पत्थरों को ढो लाया, मैंने कुंदे तैयार कर लिए और नई इमारत बनाने का स्थान चुन लिया। अब मुझे कुछ हद तक सभी कुछ बनना होगा - वास्तुशिल्पी, इंजीनियर, गणितज्ञ, संग-तराश, योजनाकार।
कैसी इमारत खड़ी करूँ मैं? कैसा रूप प्रदान करूँ उसे कि आँखें देखकर खुश हों? कि वह सुघड़ और सुंदर हो, कि अब तक उसे किसी ने न देखा हो और फिर भी जानी-पहचानी लगे। ऐसी न हो कि छत से सिर टिकराए, जैसा कि आजकल के छोटे-छोटे फ्लैटों में होता है, मगर ऐसी भी न हो कि छत को देखने के लिए सिर पीछे की ओर करना पड़े। ऐसी भी नहीं कि दरवाजे में से साधारण मेज न गुजर सके, मगर ऐसी भी नहीं कि ऊँट पर चढ़े-चढ़े ही भीतर जाया जा सके। ऐसी भी नहीं कि वह गुजरगाह या क्लब हो, जहाँ लोग कंसर्ट सुनें और चल दें, मगर ऐसी भी नहीं कि वह मसजिद हो, जहाँ लोग सिर्फ नमाज अदा करने के लिए ही आएँ। वह प्रमाण-पत्रों और आवेदन-पत्रों से ठसाठस भरे दफ्तर जैसी भी न हो और न ही लगातार घूमनेवाली अली की पवन-चक्की जैसी ही लगे।
एक नौजवान पहाड़ी की लंबी कविता पढ़कर पिता जी बोले -
'इस कविता की दीवारें कुछ अधिक ही सुंदर हैं। वह अलीकबद द्वारा बनवाए गए मुर्गीखाने जैसी लगती हैं। मुर्गीखाने को देखकर महल की याद नहीं आनी चाहिए और महल का मुर्गीखाने के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।'
इसी तरह पिता जी ने जब एक दूसरे लेखक की बहुत ही लंबी कहानी पढ़ी, जिसे वह किसी तरह भी समाप्त नहीं कर पा रहा था, तो उन्होंने उससे कहा -
'तुमने वह दरवाजा खोल दिया है, जिसे बंद नहीं कर सकते। तुमने नल खोल डाला है, जिसे बंद करना तुम्हारे बस में नहीं है। गाँठ लगाते वक्त तुमने रस्सी को बहुत ज्यादा भिगो दिया।'
मुझे याद है कि मेरे बचपन के दिनों में हमारे गाँव में गायक आया करते थे। मैं छत के सिरे पर लेटा हुआ नीचे देखता और इन गायकों को सुनता। उनमें से कोई अपने गाने के साथ खंजड़ी बजाता, कोई वायलिन, कोई चंग और अधिकतर तो कुमुज बजाते। वे अलग-अलग मौसमों में अलग-अलग जगहों से आते। वे तरह-तरह के गाने गाते और एक ही गाने को कभी न दोहराते। जब दो-तीन गायक आपस में होड़ करने लगते, तब तो मुझे खास तौर पर बहुत मजा आता।
वे गाने लंबे-लंबे थे और मैं उन सबको भूल चुका हूँ मगर फिर भी लगभग हर गाने में से किसी की चार, किसी की आठ और किसी की दो पंक्तियाँ याद रह गई हैं। शायद ये याद रह जानेवाली पंक्तियाँ ही सबसे अधिक काव्यमयी, या सबसे ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण, या सबसे ज्यादा फड़कती हुई या सबसे ज्यादा खुशी-भरी, या सबसे अधिक कारुणिक थीं।
मालूम नहीं क्यों, मुझे दूसरी नहीं, यही पंक्तियाँ याद रह गई, मगर अभी तक वे मेरी आत्मा में बसी हुई हैं और मैं अपनी प्रियतमा के नाम की तरह उन्हें कभी-कभी दोहराया करता हूँ।
संयोगवश यह भी बात दूँ कि शुरू से आखिर तक जबानी याद अन्य अवार गानों में भी ऐसी पंक्तियाँ हैं, जो मुझे बाकी पूरे गाने के मुकाबले में ज्यादा पसंद हैं।
फिर गानों की ही क्या बात है? अपनी कविताओं में भी मैं कुछ पंक्तियों के बीच अंतर करता हूँ और वे मुझे अधिक प्यारी लगती हैं - वे मुझे दूसरी पंक्तियों की तुलना में ज्यादा श्रेष्ठ, जानदार और काव्यमयी प्रतीत होती हैं। आपसे अपने राज की एक बात कहता हूँ - मेरी लंबी कविताएँ भी हैं, जिन्हें मैंने केवल अपनी कुछ प्रिय पंक्तियों के लिए लिखा है।
कविता अगर पेटी है, तो ये पंक्तियाँ उसमें लटकता हुआ खंजर हैं; कविता अगर खेत है, तो ये पंक्तियाँ उसमें अनाज से भरी बालें हैं, कविता अगर पक्षी है, तो ये पंक्तियाँ उसके पंख हैं; कविता अगर चट्टान के सिरे पर खड़ा हिरन है, तो ये पंक्तियाँ दूर तक देखनेवाली उसकी आँखें हैं।
एक बार मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि मिसाल के तौर पर अगर किसी कविता में मुझे आठ पंक्तियाँ पसंद हैं, तो मैं उसमें अस्सी पंक्तियाँ और क्यों जोड़ता हूँ? क्या ये सबसे अच्छी आठ पंक्तियाँ लिख देना ही ठीक न होगा? इसीलिए मैंने अष्टपदियों की एक पूरी किताब लिख डाली।
मेहमान की आमद से खुश होकर पहाड़ी आदमी छुरा लेता है और साँड़ को काट डालता है। मगर मेहमान को तो मांस का छोटा-सा टुकड़ा ही चाहिए। कोई भी मेहमान पूरा साँड़ नहीं खा सकता।
'अगर मेरे लिए मुर्गी ही काफी है, तो भला मुझे भी बड़ा साँड़ काटने की क्या पड़ी है?' मैंने सोचा।
इसीलिए उस किताब से, जो मैं कभी लिखूँगा, मैं सभी फालतू स्थलों को निकाल डालूँगा और सिर्फ उन्हें ही रहने दूँगा, जो मुझे प्रिय होंगे, चाहे पुस्तक दस या बीस गुना ही लंबी क्यों न हो।
एक बार मेरी उपस्थिति में एक जवान लाक कवि ने अबूतालिब को अपनी कविताएँ सुनाई। दस कविताएँ सुनाकर वह चला गया। तब अबूतालिब ने मुझसे कहा -
'शाबास है इसे, यह जरूर कुछ बन जाएगा।'
'तुम्हें अच्छी लगीं उसकी कविताएँ?'
'उसकी सभी कविताएँ कमजोर थीं। मगर आठ पंक्तियाँ ऐसी थीं, जिनके लिए लड़ाई में अभी-अभी जीता गया किला उसे दिया जा सकता है। लाक भाषा में ऐसी अष्टपदी किसी ने नहीं लिखी।'
हाँ तो अगर कविताओं और गानों में ऐसी पंक्तियाँ - चतुष्पदियाँ और अष्टपदियाँ - होती हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता, तो ऐसी ही अविस्मरणीय भेंटें और दिन तथा किसी देश के मामले में ऐसी घटनाएँ और उपलब्धियाँ भी होती हैं, जो स्मृति-पटल पर अमिट छाप छोड़ देती हैं। मैं उन्हें भी शामिल कर लेना चाहता हूँ, अपनी नई इमारत, अपनी नई किताब की दीवारों में चुनना और सीमेंट से पक्का कर देना चाहता हूँ। मैं स्पष्टीकरण के सुंदर शब्दों को उनका स्थान नहीं देना चाहता। अच्छा होगा कि वे खुद ही अपनी बात कहें।
सागर-तट पर मार्च हमेशा तूफानों का महीना होता है। उन्ही दिनों मखचकला में एक बार तूफान आया। दो तेज हवाएँ - एक कास्पियन सागर से और दूसरी पहाड़ों से आनेवाली - आपस में टकराई। एक हवा सागर के खुले विस्तार पर फुंकारती हुई नगर में घुसी और दूसरी बहुत ऊँचाई से जैसे नीचे आ गिरी। दोनों हवाएँ आपस में बुरी तरह उलझ गई, गुत्थस-गुल्था हो गई और उनमें द्वंद्व होने लगा। जब दो देव आपस में भिड़ रहे हों, तो उनके बीच आना खतरनाक होता है। मगर इस बार मखचकला उनके बीच आ गया था।
जमीन पर जो कुछ भी ढीला-ढाला पड़ा था, मजबूती से उसके साथ जुड़ा-बँधा हुआ नहीं था, फौरन हवा में उड़ गया। छोटे-पतले पेड़-पौधों, खाली डिब्बे-पेटियों, झोंपड़ियों के छप्परों, प्लाइवुड के स्टॉलों और सभी तरह के कूड़े-करकट का यही हाल हुआ।
मगर जमीन में अच्छी तरह से अपनी जड़ जमाए हुए पुराने पेड़ और बड़े-बड़े मकान बड़ी मजबूती और शान से खड़े रहे। जो कुछ भी हल्का-फुल्का और अस्थिर था, हवा में उड़ गया और मजबूत तथा दृढ़ जहाँ का तहाँ बना रहा।
इसी तरह ऐसी घटनाएँ, ऐसी मानवीय भावनाएँ और विचार भी होते हैं, जो वक्त की हल्की-सी हवा में भी उड़ जाते हैं। मगर कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें जिंदगी के तेज-से-तेज तूफान भी न तो इधर-उधर बिखरा सकते हैं और न उड़ा सकते हैं।
ऐसी जानदार घटनाओं, विचारों और भावनाओं से ही मुझे अपनी पुस्तक की इमारत खड़ी करनी है। परंपरागत अवार शैली में उसका निर्माण होना चाहिए, साथ ही यह भी जरूरी है कि वह आधुनिक हो। घर ऐसा होना चाहिए कि परिवार भी उसमें खुश रहे और मेहमान को भी सुख मिले। घर ऐसा होना चाहिए कि उसमें बच्चों के लिए खुशी का समान हो, जवानों के लिए प्यार की सुविधा और बुजुर्गो के लिए चैन का आधार हो।
मेरी किताब है - मेरा दागिस्तान। कैसी रूप-रेखाएँ हैं मेरे सामने उसकी? किससे तुलना करता हूँ मैं उसकी? पंख फैलाकर उड़ते हुए उकाब से? मगर उकाब को तो इनसानी हाथों ने नहीं बनाया और हमारे विचारों का उसमें कुछ भी भाग नहीं है। तो शायद हवाई जहाज से उसकी तुलना की जाए? मगर हवाई जहाज तो जमीन से बहुत ही अधिक ऊँचाई पर उड़ता है और जब जमीन पर होता है, तो हवाई अड्डे के दृश्य के सिवा उसके इर्द-गिर्द और कुछ भी नजर नहीं आता। धरती को जब ऊँचाई से देखा जाता है और ऊँचाई से ही उसकी चर्चा की जाती है, तो मुझे अच्छा नहीं लगता। नहीं, मैं ऐसे यंत्र की रूप-रेखा देख रहा हूँ, जो हवाई जहाज की तरह उड़ता है, रेलगाड़ी की तरह दौड़ता है और जहाज की तरह तैरता है। मैं ही उसका हवाबाज, ड्राइवर और खेवनहार हूँ। हमारा प्रस्थान-स्थान हमारा हवाई अड्डा, हमारा घाट, हमारा स्टेशन है हजारों सालों की उम्रवाला अमर दागिस्तान। यहाँ से हम हवाई जहाज, रेलगाड़ी और जहाज द्वारा दुनिया के किसी भी छोर पर जा सकते हैं। वहाँ, जहाँ मैं हो आया हूँ या वहाँ जहाँ कम-से-कम मेरी कल्पना हो आई है। हम रेलगाड़ी में जाते हैं, हवाई जहाज में उड़ते हैं, जहाज में तैरते हैं। हमें खिड़कियों से नजर आते हैं बर्फ ढके सफेद पहाड़, रसीली, हरी चरागाहें, चौड़ी नदियाँ और तटहीन महासागर। हमारी खिड़कियों के सामने से गुजरते हैं उमंग-भरा वसंत, विनम्र पतझर, कड़ाके का जाड़ा और झुलसती गर्मी। और मुसाफिर तो कितने अधिक हैं मेरे इर्द-गिर्द! यहीं हैं शामिल के पट्टियाँ बँधे मुरीद, जिनकी पट्टियों में से खून रिस रहा है, यहीं हैं पहाड़ी छापामार और विभिन्न पेशों के मेरे समकालीन। मेरे इर्द-गिर्द वे सभी हैं, जिन्हें मैंने कभी देखा है, जिनसे मेरी मुलाकात हुई है, जिनसे मैंने कभी बातचीत की और जो मुझे याद रह गए हैं।
हाँ मेरी रेलगाड़ी-पुस्तक, वायुयान-पुस्तक, जलयान-पुस्तक के लिए बस एक ही टिकट या अनुमति-पत्र की जरूरत है कि उनकी मेरे स्मृति-पटल पर छाप रह गई हो। लोग और घटनाएँ उन अष्टपदियों और पंक्तियों के समान होनी चाहिए, जो मुझे गली में घूमते हुए गायकों के लंबे गानों में से याद रह गई हैं। वे उन आठ पंक्तियों जैसी होनी चाहिए, जिनकी अबूतालिब ने जवान कवि की दस लंबी कविताएँ सुनकर तारीफ की थी। वे उन वृक्षों और मकानों जैसे होने चाहिए, जो तूफान में जहाँ के तहाँ बने रहे, जबकि जो कुछ हल्का-फुल्का और अस्थिर था, वह पतझर के पत्तों की भाँति उड़ गया था।
यहीं तो गाजनिची गाँव के एक मुसलिम के साथ मेरी तुलना हो जाएगी। अब मैं आपको यह बताता हूँ कि उसके साथ क्या हुआ था।
मई के महीने में भेड़ों को धूल और उमस भरी स्तेपी से हरे-भरे, ठंडे पहाड़ों में ले जाया जाता है। उस वक्त गाजानिची गाँव के मुस्लिम नामक एक लेखक ने लेखक-संघ से यह अनुरोध किया कि उसे भेड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के बारे में शब्द-चित्र लिखने के लिए दौरे पर भेज दिया जाए। वैसे मुमकिन है कि यह सितंबर महीने की बात हो, जब भेड़ों को पहाड़ों से, जहाँ इस वक्त ठंड हो जाती है, जाड़े के लिए गर्म स्तेपियों में भेजा जाता है। हमने मुसलिम को दौरे पर भेज दिया। मुसलिम रवाना हो गया और उसने चरवाहों और रेवड़ों के साथ ईमानदारी से सारा रास्ता तय किया। जब वह लौटा, तो उसके द्वारा लिखी गई नोटबुकें एक अलग घोड़े पर लादकर लाई गई। हुआ यह कि उसने जो कुछ भी देखा, वह सभी कुछ हर दिन लिखता गया। कोई भी चीज, कोई छोटी-मोटी बात भी उसने नहीं छोड़ी। किसी घोड़े को देखा, तो उसके बारे में, चरवाहे को देखा, तो उसके बारे में और भेड़ को देखा, तो उसके संबंध में लिख डाला। जरा खयाल कीजिए कि कितनी भेड़ें और कितने चरवाहे थे वहाँ! उसने जो कुछ देखा, वह भी लिखा, और जो कुछ सुना, वह भी। और वह भी सभी कुछ। उसने उनके बारे में लिखा, जो ज्यादा तेजी दिखा रहे थे और जिन्हें थोड़ा रोकना जरूरी था और उनके संबंध में भी जो पिछड़ गए थे और जिन्हें आगे खदेड़ना जरूरी था चुनांचे रास्ते के बारे में रास्ते से ज्यादा लंबी किताब बन गई। ऐसी किताब बन गई, जिसे पढ़ने के लिए उतना ही वक्त लगाना जरूरी था, जितना मुसलिम ने अपने सफर में लगाया था। चरवाहों ने बाद में हमें बताया कि जब वे गिमरा पर्वतमाला पर चढ़ रहे थे, तो एक खच्चर दिखाई दिया। इतना ही नहीं कि खच्चर को देखते ही मुसलिम ने उस बेचारे के बारे में कलम चला डाली, उसे उसके चारों सुम भी देखने की इच्छा हुई। मुसलिम उसकी तरफ लपका, उसकी एक पिछली टाँग पकड़ ली और उसने उसे ऊपर उठाना चाहा। मगर खच्चर ने लेखक के नेक इरादे और इस घटना के महत्व को न समझते हुए बदकिस्मत मुसलिम पर बदतमीजी से लात चला दी और वह उसकी नाक पर जा लगी।
इर्द-गिर्द जमा चरवाहे हँस पड़े -
'मुसलिम को यह भी लिखना होगा!'
बेशक यह सही है कि खच्चर सनकी और बदतमीज जानवर है, मगर मुसलिम के मामले में उसने शायद ठीक ही किया था। जरूरत से ज्यादा तंग करनेवाले आदमी को सजा मिलनी ही चाहिए।
बाद में हमने लेखक संघ में मुसलिम की इस रचना पर विचार किया। मजाक करते हुए हमने उससे यह पूछा -
'मुसलिम, तुम्हारी इस किताब में हारीकुली गाँव के गधे के बच्चे से लेकर खच्चर के सुम तक सभी कुछ लिखा हुआ है। मगर यह बताओ कि बिना सींगोंवाले बकरे को तुम कैसे भूल गए?'
'अजी, आप यह क्या कह रहे हैं? कैसे भूल सकता था मैं उसे! बिना सींगोंवाला बकरा भी है मेरी किताब में। मगर मैंने स्थानीय बोली में उसका जिक्र किया है। मैंने 'खान्क्वा' के नाम से उसके बारे में लिखा है।'
हम सब खूब हँसे। मगर फिर भी बाद में हमने उसे यह समझाने की कोशिश की कि लेखक जो कुछ देखता है, उसे उस सभी के बारे में नहीं लिखना चाहिए, उसे तो अपनी जरूरत की सामग्री चुननी चाहिए। एक वाक्य बहुत बड़े विचार को, एक शब्द बहुत बड़े भाव और एक अंश पूरी घटना को व्यक्त कर सकता है।
कुछ ही समय पहले हमारे यहाँ सभी तरह का पुनर्गठन किया गया। अभी भी हम किसी-न-किसी चीज का अचानक पुनर्गठन करने लगते हैं। मुझे भी यह छूत लग गई है। मैं अपनी विधा का पुनर्गठन करता हूँ। मैं सभी विधाओं को एक किताब में इकट्ठा कर रहा हूँ, उन पर अपना संचालन स्थापित कर रहा हूँ। कहीं मैं कर्मचारियों की संख्या घटा रहा हूँ, तो कहीं बढ़ा रहा हूँ। कहीं-कहीं विधाओं को बदल रहा हूँ, दो को एक में मिला रहा हूँ और एक को दो में बाँट रहा हूँ। यदि बहुत अधिक पुनर्गठन किए जाएँ, तो चाहे संयोगवश ही, कोई-न-कोई तो बढ़िया हो ही जाएगा।
मखचकला में आनेवाले पहाड़ी का किस्सा। एक पहाड़ी सरकारी दौरे पर मखचकला आया। उसके पास बहुत पैसे थे और सो भी अपने नहीं, सरकारी। वह दोनों वक्त रेस्तराँ में खाना खाता। अपनी आमद के पहले दिन उसने सारे हॉल को सुनाते हुए चिल्लाकर कहा -
'बैरा, और ब्रांडी लाओ!'
सभी ने यह सुना, उसकी तरफ मुड़े और हैरान हुए कि यह कौन है, जो इतनी अधिक पीता है और जिसे महँगी ब्रांडी पर पैसे खर्च करते हुए तकलीफ नहीं होती।
अपने दौरे के आखिरी दिन हमारे इसी पहाड़ी ने उसी बैरे से फुसफुसाकर पूछा -
'आपके रेस्तराँ में सेंवइयों के शोरबे का क्या दाम है?'
तो बैल का जुताई के शुरू में नहीं, अंत में पता चलता है। इस बात से नहीं कि वह चरागाह में कैसे कुलाँचें भरता है, बल्कि इससे कि वह जुए में कैसे चलता है। घोड़े पर सवारी करने के समय नहीं, बल्कि उससे उतरते वक्त उसकी चर्चा की जाती है।
क्या मैं अनसालतीवासियों के बिगुल की तरह अपनी किताब का भोंपू तो नहीं बजा रहा हूँ? क्या मैं सिवुखवासियों की तरह लकड़ी का चूल्हा तो नहीं बना रहा हूँ? क्या मैं भेड़िये की जगह किसी कुत्ते को तो नहीं मार रहा हूँ, जैसा कि एक बार मेरे त्सादा गाँववालों ने किया था।
मंजिल के शुरू में मंजिल दूर लगती है। उस तक पहुँचने के लिए मुझमें पर्याप्त साहस, प्यार और सब्र तो बना रहेगा? या फिर अंत तक पहुँचने पर गुद्दी खुजाते हुए यह सोचना होगा कि सेंवइयों का क्या दाम है?
संस्मरण। एक बार दागिस्तान में बहुत कड़ाके का जाड़ा पड़ा। अचानक ही बर्फ गिरी और जमीन पर उसकी कोई एक मीटर ऊँची तह जम गई।
भेड़े-मेमने चरें तो क्या? वे मरने लगीं। मुझे प्रादेशिक पार्टी समिति में बुलाकर कहा गया -
'रसूल, चरागाहों में जाओ, भेड़ों को बचाना जरूरी है।'
'मैं उन्हें क्या मदद दे सकता हूँ?'
'वहाँ जाकर जैसा जरूरी समझो, कुछ सोच लेना। उन्हें बचाने की तरकीब ढूँढ़नी ही होगी।'
चरागाहों का रास्ता तो मैं अच्छे मौसम में भी ढंग से नहीं जानता था और बर्फीले तूफान में उसे ढूँढ़ना मेरे लिए कैसा रहा होगा, यह तो आप सोच ही सकते हैं। मगर पार्टी का अनुशासन तो सबसे ऊपर ठहरा, और इसलिए मैं बर्फ और तेज हवा में अपना रास्ता बनाता हुआ चल दिया। आखिर एक रेवड़ तक जा पहुँचा। चरवाहों के चेहरों पर मातम छाया था। उनके गालों और मूँछों पर आँसुओं की जमी हुई बूँदों की धुँधली-सी मालाएँ बनी हुई थीं। लहू-लुहान थूथनियोंवाली भेड़ें जमी हुई बर्फ की तहों के नीचे से घास पाने की कोशिश करती थीं। मगर इसमें उन्हें कामयाबी न मिलती थी और वे मर जाती थीं। भेड़ियों और चोरों की फिक्र न करते हुए कुत्ते हवा से बचने के लिए इधर-उधर जा छिपे थे। मतलब यह कि मेरे सामने मुसीबत और लाचारी का नजारा था। मुझे देखकर चरवाहे कटुतापूर्वक हँस पड़े -
बस, कविताओं और गीतों की ही कसर रह गई थी। त्सादा गाँव के हमजात के बेटे, तुम तो हमें कविता या गीत गाकर सुनाने ही आए हो न? यह ज्यादा अच्छा होगा कि तुम कोई मरसिया पढ़ो और हम फूट-फूटकर रोएँगे।
तीन दिनों तक मैं चरवाहों के झोपड़े मैं बैठा रहा और फिर यह देखकर कि मेरे वहाँ बैठे रहने से कोई फायदा नहीं और न ही हो सकता है, पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। मैं मखचकला वापस आ गया।
'कहो, क्या बचा ली भेड़ें?' मुझसे प्रादेशिक पार्टी-समिति में पूछा गया।
'हाँ, तीन भेड़ें बचा लीं।'
'वह कैसे, बताओ तो!'
'बड़े सीधे-सादे ढंग से। चरवाहों ने तीन भेड़ें काट डालीं और हमने उन्हें खा लिया। मेरे खयाल में तो मैंने ये तीनों भेड़ें बचा लीं।'
'इसमें क्या शक है,' प्रादेशिक समिति में मुझे यह क्रोधपूर्ण जवाब मिला, 'जाओ, अपनी कविताएँ रचो और जहाँ तक भेड़ों का सवाल है, उन्हें तो हमें ही तुम्हारे बिना बचाना होगा। इसलिए कि अच्छी कविता रचो, हम तुम्हारी लानत-मलामत करते हैं।'
मेरी किताब के साथ भी कहीं ऐसा न हो। रेवड़ों को बचाने जाऊँ, पर जाने कौन-सा मुँह लेकर लोटूँ? सुबह-सवेरे शुरू होनेवाला दिन हमेशा ही तो वैसा साबित नहीं होता, जैसा कि हम चाहते हैं।
संस्मरण। मास्को के साहित्य-संस्थान में मुझे अपना पहला दिन याद आ रहा है। हमने पढ़ाई शुरू की ही थी कि मेरा जन्म-दिन आ गया। जाहिर है कि किसी ने भी मुझे बधाई नहीं दी, क्योंकि कोई जानता ही नही था कि मैंने इस दिन जन्म लिया था। मैंने ओवरकोट खरीदने के लिए कुछ रकम अलग रखी हुई थी, जो मुझे पिता जी ने दी थी।
'हाँ, तो बेचारे रसूल,' मैंने अपने आप से कहा, 'चलो, अपने जन्म-दिन पर खुद ही अपने लिए तोहफा खरीद लो।' मैं वह रकम लेकर तीशीन्स्की मंडी की तरफ चल दिया।
दूसरे विश्व-युद्ध के बादवाले पहले सालों में मास्को की मंडियाँ भी क्या कमाल की थीं! उनके अपने कानून-कायदे थे, अपने चोर बाजारी करनेवाले और अपने ही मिलीशिया वाले। शायद वहाँ गधे और गधी को छोड़कर बाकी सभी कुछ खरीदा जा सकता था।
तीशीन्स्की मंडी बहुत कुछ तो चींटियों की उस बांबी जैसी लगती थी, जिसे किसी ने छेड़ दिया हो। एक घंटा भर मैं लोगों की भीड़ के बीच धकियाया जाता रहा, तो सभी तरह की रद्दी चीजें-सूट, घुटनों तक के जूते, ट्यूनिकें, फौजी ओवरकोट, टोपियाँ, फ्राक, स्वेटर, सेंडल और बैसाखियाँ मेरी तरफ बढ़ा-बढ़ाकर दिखाते थे...
उन दिनों मैं किसी राज्य-मंत्री जैसा दिखना चाहता था। भीड़-भड़क्के में ऐसा ओवरकोट ढूँढ़ रहा था, जिसे पहनते ही मंत्री जैसा दिखने लगूँ। आखिर मुझे चोर बाजारी करनेवाले एक आदमी के कंधे पर कुछ इसी ढंग का ओवरकोट नजर आया। उसके साथ ओवरकोट के रंग और उसी कपड़े की टोपी भी थी।
जाहिर है कि मैंने टोपी से ही शुरू किया। उसे पहनकर आईने में अपनी सूरत देखी - बिल्कुल मंत्री लग रहा था। सौदेबाजी शुरू की। जब तक मैं ऊँची और साफ आवाज में थोड़ी कीमत कहता रहा, उसे जैसे वह सुनाई ही नहीं दी। मगर जब मैंने धीरे-से, फुसफुसाकर असली कीमत कही, तो उसे फौरन सुनाई दे गया। हमने हाथ मिलाए कि सौदा तय हो गया। अपने तीन और पाँच रूबलों के नोटों को अधिक सुविधा से गिनने के लिए मैंने ओवरकोट चोर बाजारी करनेवाले को पकड़ा दिया। दो हजार दो सौ पचास रूबल गिनकर मैंने उसे सौंप दिए। बड़ी शान से मंत्री की तरह अकड़ता हुआ होस्टल में पहुँचा। तभी यह याद आया कि ओवरकोट तो चोर बाजारी करनेवाले के हाथ में ही रह गया। दो हजार दो सौ पचास रूबल देकर मैंने सिर्फ एक टोपी ही खरीदी।
तो इस तरह मंत्री बनने का सपना देखते हुए मैं ओवरकोट और पैसों से भी हाथ धो बैठा। कहीं मेरी किताब के साथ भी ऐसा ही न हो जाए।
सभी को यह मालूम होता है कि उन्हें क्या चाहिए, मगर सभी उसे हासिल नहीं कर पाते। सभी अपनी मंजिल जानते हैं, पर वहाँ तक सभी नहीं पहुँचते। ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें यह मालूम है कि किताब कैसे लिखनी चाहिए, मगर वे उसे लिख नहीं पाते।
कहते हैं कि एक ही सूई शादी का फ्राक और मुर्दे का कफन सीती है।
कहते हैं कि वह दरवाजा नहीं खोलो, जिसे बाद में बंद न कर सको।