मेरी सभी किताबें मेरी राहें हैं
जिन पर कभी बढ़ा सहमा-सा, कभी निडर,
कभी गिरा जाकर खड्डों में, गड्ढों में
कभी चढ़ा ऊँचे-ऊँचे, छू लिया शिखर।
मेरी सभी किताबें खूनी जीतों-सी
क्या हमको मालूम कि जब चढ़ते ऊपर,
नाम हमारा चमकेगा इस दुनिया में
या कि व्यर्थ ही रक्त बहेगा धरती पर।
दागिस्तान में बहुत-सी भाषाएँ हैं, बहुत-से स्थानीय रंग-ढंग हैं! वहाँ के लोग बहुत-से विभिन्न रस्म-रिवाजों को सुरक्षित रखे हुए हैं। तात लेखक हिजगील अवशालूमोव ने ऐसे ही एक रिवाज की मुझसे चर्चा की।
किसी पहाड़ी के यहाँ अगर बच्चे नहीं होते थे, तो पति ऊन की पेटी बाँध लेता था ताकि अल्लाह दूसरे पहाड़ी लोगों में उसे अलग से पहचान ले। साथ ही वह अल्लाह से यह दुआ भी करता था -
'ओ अल्लाह, अपने इस बेचारे गुलाम पर रहम करो। उसे बेटा दे दो।'
ऐसी ही पेटियाँ वे भी बाँधते थे, जिनके सिर्फ बेटियाँ ही पैदा होती थीं और वे भी, जिनके बच्चे दुबले-पतले, अंधे-बहरे, लंगड़े-लूले, टेढ़े-मेढ़े अंगोंवाले, गूँगे, कुबड़े या कुछ-कुछ पागल होते थे। ऐसी पेटी पहननेवाला पहाड़ी यह यकीन करता था कि अगली बार अल्लाह उसे स्वस्थ और तगड़ा बेटा देगा, जो सचमुच ही असली बहादुर जीगित बनेगा।
मेरे मन में भी ऐसे ही संशय होते हैं : क्या मैं भी वैसी ही पेटी न बाँधना शुरू कर दूँ जैसी कि यह संशय करनेवाले तात लोग पहनते हैं कि उनका भावी बच्चा स्वस्थ होगा या नहीं स्वस्थ होगा? मेरी नई किताब बेटा और जीगित होगी या वह विकलांग, कुबड़े और गूँगे-बहरे बच्चे का रूप लेगी?
हाँ, हर माँ को अपना बच्चा बहुत प्यारा लगता है। माताएँ अपने बच्चों की त्रुटियों को देखती भी हैं और फिर भी अनदेखा कर देती हैं। मेरी किताब के सिलसिले में भी कहीं ऐसा ही न हो जाए।
मेरा दिल डरता है। मेरी लेखनी काँपती है। संदेह मुझ पर हावी होते हैं। मैं बिल्ली को उकाब समझकर तो कहीं, निशाना नहीं साध रहा हूँ? गधे को घोड़ा समझकर कहीं मैं उसी पर तो सवारी नहीं कर रहा हूँ? क्या मैं उस आखालचीवासियों की भाँति शहतीर को लंबाई के रुख रखने की बेकार कोशिश तो नहीं कर रहा हूँ, जबकि उसे चौड़ाई के रुख रखना चाहिए था और इसीलिए वह छोटा पड़ रहा था? क्या मैं हारीकुलीवासी की तरह अपने चूल्हे के पास बैठा-बैठा ही आनदी के किले पर तो धावा नहीं बोल रहा हूँ?
पुस्तक की समाप्ति के पहले मैं अपने को उस कसाई की तरह महसूस कर रहा हूँ, जो भेड़ का कूल्हा काटते-काटते दुम तक जा पहुँचे और तभी उसका छुरा टूट जाए। मैं अलम तक पहुँच सकूँगा? क्या फल सामने आएगा? सागर की गहराई से मैं खाली सीपी लेकर आ रहा हूँ या उसमें से बढ़िया मोती निकलेगा?
तेज आँधी वृक्ष की टहनी या उसका तना भी तोड़ सकती है। मगर वसंत में जड़ों से पुनः नई शाखाएँ निकल आएँगी और नया वृक्ष बढ़ने लगेगा। पर यदि वृक्ष को फफूँद लग जाए, वह उसे भीतर से खा जाए, अगर वह वृक्ष की जड़ों को ही खोखला कर डाले, तब कुछ भी नहीं हो सकेगा। इनसान के बारे में भी ऐसी ही बात है। अगर उसे कोई बाहरी चोट आ जाए, घाव हो जाए, यहाँ तक कि अगर उसकी हड्डी भी टूट जाए, तो वह भी जल्दी से ठीक हो सकती है। पर शरीर के अंदर, कहीं गहराई में पैदा हो जानेवाली बीमारी तो जरूर ही जान लेकर जाती है। मेरी किताब स्वस्थ है या नहीं, उसकी जड़ें काफी मजबूत और भरोसे के लायक हैं या नहीं?
मेरी किताब जवान हो गए बेटे के समान है; पहाड़ी घर उसे तंग महसूस होता है; अब उसे लोगों में भेजने, अपनी राह पकड़ने, बड़ी दुनिया में रवाना करने का वक्त आ गया है। कैसा बर्ताव होगा उसके साथ वहाँ - उसे प्यार मिलेगा या डाँट-फटकार? खिला-पिलाकर सुलाया जाएगा या दहलीज से दुतकार दिया जाएगा? अब मेरे बस में कुछ नहीं है।
कविता हुई समाप्त, तुम्हारा बुना गया कालीन
किंतु रुको कुछ देर, अभी मत इतराओ,
कोने साधो, इधर-उधर धागे काटो
नजर नमूनों पर तुम फिर से दौड़ाओ।
कविता हुई समाप्त, कि पूरा खेत जुता
पर यह कल का श्रम है, थोड़ा रुक जाओ,
फिर से जाकर देखो हल-रेखाओं को
संभव है तुम दोष, कहीं, कोई पाओ।
मेरी किताब तो समाप्त हो चुके ऐसे कालीन के समान है, जिसे बिछा दिया गया है ताकि पहली बार उसे पूरी तरह एकबारगी देखा जा सके। मुझे उसमें अनेक गलत रेखाएँ, दोषपूर्ण नमूने और अस्पष्ट बेल-बूटे दिखाई दे रहे हैं, सजावट कहीं-कहीं कच्ची और टेढ़ी-मेढ़ी है। मगर इन गलतियों को अब ठीक करना मुमकिन नहीं, क्योंकि कालीन बुना जा चुका है। उसका छोटे से छोटा दोष दूर करने के लिए भी सारे कालीन को उधेड़ना होगा।
मेरी किताब तो बहुत लंबे और कठिन रास्ते के बाद घर लौटने के समान है; दो साल तक मैं घर पर नहीं रहा; गाँववाले, पड़ोसी, यार-दोस्त और बूढ़े-जवान दो साल तक मेरे बारे में कुछ नहीं सुन पाए। तो मैं गाँव के छोरवाले घर के पास ही घोड़े से नीचे उतर जाता हूँ और लगाम थामकर धीरे-धीरे घोड़े के साथ चल पड़ता हूँ। पहाड़ी औरत ने अपनी खिड़की में जो दीपक जलाकर रख दिया था, ताकि मेरा रास्ता रोशन रहे, उसे अब बुझाया जा सकता है। मैं घर लौट रहा हूँ। सलाम, मेरे गाँववालो! मैं दो साल की यात्रा के बाद घर लौट रहा हूँ। इन दो सालों के दौरान मेरा घोड़ा बूढ़ा गया है। मेरे बाल भी कुछ और ज्यादा पक गए हैं। घोड़े की लगाम थामे हुए मैं धीरे-धीरे गाँव का सड़क पर जा रहा हूँ और हर मिलनेवाले से कहता हूँ -
'असलामालैकुम!'
'वालैकुम सलाम, हमजात के बेटे रसूल! तुम्हारा सफर कैसा रहा? थक तो नहीं गए? क्या लेकर आए हो? तुम्हारी खुरजियों में क्या भरा हुआ है?'
मैं लोगों से कहना चाहता हूँ कि उनके लिए एक नई किताब लाया हूँ। मगर किताब तो ऐसी चीज है, जो न तो गाँववालों और न ही किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में दी जा सकती है। सबसे पहले तो उसे प्रकाशक के हाथ में जाना होगा और वही उसकी किस्मत का फैसला करेगा।
प्रकाशक ने मुझसे पांडुलिपि लेकर उसे हाथों में तौला, इधर-उधर घुमाया, उसके पृष्ठ उलटे-पलटे - सबसे पहला, फिर एक बार ही सत्तरवाँ और फिर आखिरी पृष्ठ और पांडुलिपि को सुरक्षित जगह पर एक तरफ को रख दिया।
'मुमकिन है कि तुम्हारी किताब अच्छी ही हो, मगर हमारी तो इस साल और अगले साल की प्रकाशन योजनाएँ बन चुकी हैं, उनकी पुष्टि भी हो चुकी है। तुम्हारी किताब तो हमारी योजनाओं में नहीं है।'
'वह तो मेरी अपनी योजना में भी नहीं थी। बिल्कुल अचानक ही आ गई है। अब क्या किया जाए इसका?'
'अपनी तरफ से अर्जी लिख दो। इसे देख लेंगे, सोच-विचार कर लेंगे, किसी नतीजे पर पहुँच जाएँगे। संपादक मंडल की विशेष योजना में स्थान दे देंगे। एक साल बाद इसी वक्त या तो आ जाना या टेलीफोन कर लेना।'
प्रकाशनगृह के नाम अबूतालिब का पत्र। 'दागिस्तान के आदरणीय प्रकाशनगृह! मैं आपका जन-कवि हूँ, दागिस्तान की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मंडल का सदस्य हूँ, विशेष पेंशन पाता हूँ। इस साल मैं पचासी बरस का हो जाऊँगा। मैं जानता हूँ कि अगर किस्मत की मुझ पर टेढ़ी नजर हो जाए और मैं इस दुनिया के कूच कर जाऊँ, तो आप मेरी कविताओं के दो बड़े ग्रंथ निकालने का निर्णय करेंगे। मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि उन दो ग्रंथों के बजाय, जो आप मेरी मौत के बाद छापने का इरादा रखते हैं, अभी, जबकि मैं जिंदा हूँ, मेरी एक किताब छाप दें। सादर, आपका अबूतालिब।'
ऐसी अर्जी लिखते हैं शांत और भले लोग। मगर ऐसी भी अर्जियाँ होती हैं, जिनमें शिकायतें भरी रहती हैं, खूब कोसा जाता है। ऐसी भी अर्जियाँ होती हैं, जिनमें अपनी तारीफों के पुल बाँधे जाते हैं। चापलूसी से भरी अर्जियाँ भी होती हैं। खीझ-गुस्से और चीख-चिल्लाहटवाली अर्जियाँ भी लिखी जाती हैं।
प्रकाशनगृहों को लिखी जानेवाली नहीं, बल्कि उनके विरुद्ध लिखी जानेवाली अर्जियाँ ही सबसे ज्यादा खतरनाक होती हैं। प्रकाशकों की कठिनाइयों को भी समझना चाहिए। अगर कुर्सी पर एक ही आदमी के बैठने की जगह है, तो उस पर तीन या चार आदमी तो नहीं बैठ सकते। अगर दो भी देर तक बैठे रहें, तो उन्हें भी तकलीफ होगी। कोई कहता है - 'आप अहमद की किताब क्यों छाप रहे हैं और मेरी किताब क्यों नहीं छापना चाहते? क्या मैं उससे बुरा हूँ?' दूसरा चिल्लाता है - 'मेरी किताब उन सभी किताबों से अच्छी है, जो तुमने पिछले सालों में छापी हैं? इस बार भी मुझे योजना में क्यों नहीं रखा गया?'
नहीं, मैं प्रकाशक से झगड़ा नहीं करना चाहता। मैं इंतजार करने को तैयार हूँ। मुझे मालूम है कि प्रकाशकों के पास हमेशा कागज की कमी रहती है। कागज चला कहाँ गया? उसे लेखक, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, खराब करते हैं। इसलिए मैं क्यों उन्हें भला-बुरा कहूँगा! हाँ, कभी-कभी कागज खराब होने के बजाय उस पर कुछ ऐसा रचा जाता है कि वह लेखक और प्रकाशक के इस दुनिया से चले जाने पर भी जिंदा रहता है। ओह, मेरी यह बहुत ही बड़ी अभिलाषा है कि कागज के किसी टुकड़े पर ऐसे शब्द लिखे जाएँ, जो अमृत की भाँति उसका उस हरे-भरे और सजीव वृक्ष में कायाकल्प कर दें, जिससे कभी वह कागज बनाया गया था।
नहीं, मैं प्रकाशक से झगड़ा नहीं करना चाहता। मैं तो शांतिपूर्वक उससे यह कहता हूँ -
'आप मेरे और मेरे गाँववालों के बीच, मास्को और अन्य नगरों के मेरे पाठकों और मेरे बीच खड़े हैं। आप तो हमारी बीच की, हमें जोड़नेवाली कड़ी हैं। कृपया, मेरा अनुरोध मानते हुए कुछ ऐसा कीजिए कि हमारे हाथ दोस्ताना ढंग से मिल जाएँ। मैं आपकी मिन्नत करता हूँ...'
प्रकाशक मेरे इस शांतिपूर्ण अनुरोध के सामने झुक जाता है और मेरी पांडुलिपि फौरन संपादक के हाथ में पहुँच जाती है।
संपादक
'संक्षिप्त करो!' उसके दरवाजे पर यह लिखा है।
प्रकाशक ने कहा था - 'एक साल बाद आना। संपादक ने तीन हफ्ते बाद आने को कहा। इस अवधि से तो मुझे खुशी भी हुई, क्योंकि इसी बीच आपको छोटे-छोटे तीन किस्से भी सुना लूँगा।
एक संपादक को कैसे खिड़की से बाहर फेंक दिया गया। एक अवार कवि नववर्ष के अंक में प्रकाशित कराने के लिए अपनी कविताएँ लेकर एक अखबार के दफ्तर में पहुँचा। कविताएँ पसंद आईं और छाप दी गईं।
कवि बहुत खुश हुआ और उसी दिन उसके घर पर यार-दोस्तों की महफिल जमी। कवि ने बड़ी शान से अखबार खोला और ऊँचे-ऊँचे अपनी कविताएँ सुनाने लगा। अचानक उसके चेहरे का रंग उड़ गया, उसने बाएँ हाथ से ऐसे दिल थाम लिया मानो उसमें तीर जा लगा हो। अखबार उसके हाथ से नीचे गिर गया। दोस्त लपककर उसके पास आए, उन्होंने उसे सँभाला, पानी पिलाया : कवि के होश ठिकाने होने पर उसकी ऐसी हालत हो जाने का कारण पता चला। हुआ यह था कि उसकी कविताओं में से चार पंक्तियाँ गायब थीं। कवि अखबार के दफ्तर में भागा गया।
'आपकी अखबार रूपी चरागाह में मैंने जो अपनी भेंड़ें चरने के लिए छोड़ी थीं, उनमें से चार सबसे अच्छी भेड़ों को किसने जिबह किया है?'
समाचार पत्र के संपादक ने बड़ी शांति से जवाब दिया -
'मैंने... क्या बात है?'
'तुमने ऐसा क्यों किया?'
'इसलिए कि कुछ बहुत जरूरी सामग्री आ गई थी, जगह की कमी थी।'
'पर यदि तुम कवि की अनुमति के बिना उसकी कविता की पंक्तियाँ निकाल फेंक सकते हो, तो मैं खुद तुम्हें ही अभी खिड़की से बाहर फेंक देता हूँ।'
कवि की रगों में गर्म अवार खून था। उसने संपादक को गर्दन और टाँगों से पकड़कर सचमुच ही खिड़की से बाहर फेंक दिया। इतनी ही खैरियत कहिए कि यह घटना दूसरी मंजिल पर घटी और खिड़की के नीचे नर्म क्यारी थी। अदालत में कवि ने कहा - 'खून का बदला खून! दाँत के बदले दाँत! उसने मेरा संपादन किया और मैंने उसका संपादन कर डाला।'
कहते हैं कि यह 'संपादित' संपादक अभी भी कविताओं की काँट-छाँट करता रहता है (इसके बिना तो वह शायद संपादक ही नहीं हो सकता), मगर अब वह कवियों की पहले से अनुमति ले लेता है।
नोटबुक से। मेरे पिता जी ने 'मोची' और 'कोदोलाव की शादी' नामक दो नाटक लिखे। शुरू में वे थियेटर में गए, फिर संस्कृति-विभाग में और उसके बाद दागिस्तान के कला-संचालन-कार्यालय में जा पहुँचे। पिता जी को पक्की तरह यह मालूम था कि वे वहाँ गए हैं और वहाँ से किसी दूसरी जगह नहीं गए हैं। मगर वहाँ भी उनका कोई अता-पता नहीं था।
बुरे मौसम के बावजूद जिस तरह चरवाहा चरागाह में रह गई भेड़ों की खोज में निकल पड़ता है, वैसे ही पिता जी भी अपने नाटकों की तलाश में निकल पड़े।
संचालन-कार्यालय में केवल नाटकों से संबंध रखनेवाला एक आदमी बैठा था। उसे भी संपादक ही कहा जाता था। पिता जी कोई एक घंटे से ज्यादा वक्त उससे बातचीत करते रहे और अचानक उन्हें यह महसूस हुआ कि जब तक मौसम, चरागाहों, भेड़ों और गउओं तथा घोड़ों का जिक्र होता रहता है, तो बातचीत में रंगीनी रहती है, मगर जैसे ही साहित्य और नाटक-कला की चर्चा होने लगती थी, वैसे ही उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता था। इस पर तुर्रा यह कि संपादक लगातार नाटक-कला की ही चर्चा करने की कोशिश करता था, पिता जी को अच्छे नाटक लिखने के बारे में उपदेश और नसीहतें देता था। आखिर पिता जी को अच्छे नाटक लिखने के बारे में उपदेश और नसीहतें देता था। आखिर पिता जी से बर्दाश्त न हुआ और उन्होंने साफ-साफ ही पूछ लिया कि वह आदमी है कौन, उसने क्या शिक्षा पाई है और कला-संचालन-कार्यालय में आने से पहले कहाँ काम कर चुका है।
'मैं उच्च शिक्षा प्राप्त हूँ,' संपादक ने शान से जवाब दिया। 'पेशे से पशु-चिकित्सक हूँ। अब इस काम पर लगा दिया गया हूँ।'
'तो क्या मेरे नाटक गउएँ हैं कि तुम उनका इलाज करने की कोशिश कर रहे हो! कवि भला पशु-चिकित्सकों को कभी सलाह क्यों नहीं देते? मगर कवियों को जिसका भी जी चाहता है, सीख देने लगता है।'
कहीं मेरी किताब भी तो किसी ऐसे ही संपादक के हाथों में नहीं पड़ रही है, जो पहले पशु-चिकित्सक था?
अबूतालिब और संपादक। अबूतालिब की पांडुलिपि को संपादक ने वैसे ही नोच-खसोट डाला जैसे रण-क्षेत्र में खेत रहे सैनिक की लाश को कौवा नोच डालता है। इसी नुची हालत में उसके प्रूफ अबूतालिब के पास आए। अबूतालिब ने उन्हें पढ़ा और हैरान होकर कहा -
'मेरे हरे-भरे मैदान को घोड़ों ने रौंद डाला है। जहाँ पहले फूल थे, वहाँ अब दलदल है। अगर कोई छात्र इमले में कुछ गलतियाँ करता है, तो अध्यापक उन्हें सुधारता है। मगर यह कौन-सा अध्यापक है, जो यह जानता है कि मेरे जीवन में क्या सही और क्या गलत था?'
अबूतालिब ने बहुत ध्यान से प्रूफ पढ़े और अचानक कह उठे -
'मैं जानता हूँ कि मेरा संपादक किस गाँव का रहनेवाला है। वह मेरी किताब को अपने गाँव की बोली के मुताबिक सुधारना चाहता है। बेशक बोलियाँ अनेक हैं,पर भाषा एक, जनता एक है! अगर हर संपादक अपने गाँव की बोली की तरफ ही खींचने की कोशिश करेगा, तो हम अपनी कविता का गाँव कभी नहीं बसा पाएँगे।'
मेरे संपादक, यह याद रखना कि तुम्हारे गाँव के अलावा दुनिया में और स्थान भी हैं, तुम्हारे अलावा और लोग भी हैं। वैसे तो हमारे बीच मतभेद नहीं हो सकता। तुम्हारी टिप्पणियों से अगर कोई लाभ हो सकेगा, तो मैं जरूर उनका उपयोग करूँगा। मगर तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि अपने गीत के प्रति मैं कुल बैर की-सी गहरी भावना रखता हूँ। ऐसी भावना मुझमें अभी नहीं आई है। जवानी के दिनों में लिखी गई मेरी एक कविता ऐसे ही शुरू हुई थी -
अपने दिल में रहा सहेजे, मैं वांछित प्रतिशोध-सा
अपनी कविताओं का स्पंदन, औ, सिहरन,
गुप्त प्यार-सा रहा बचाता, अपने प्यारे गीतों को
जग की बुरी-बुरी नजरों से, मैं हर क्षण।
बड़े प्यार से पाला-पोसा उन्हें कि जब वे थे नन्हें
उनकी हर आवाज सुनी, कातर रोदन,
ऐसे बाँधा मैंने उनको, छंदों-बंदों में, तुक में
घड़ीसाज जड़ता है जैसे पुर्जे चुन।
मिलते-जुलते एक तरह के, ढेरों शब्दों में से मैं
चुन लेता था कुछ को ऐसे, कोशिश कर,
जैसे बढ़िया से भी बढ़िया, हम चुन लेते हैं मदिरा
प्यारे किसी अतिथि के घर आ जाने पर।
अपनी कविता की यात्रा पर, रात हुए चल देता था
और सुबह तक चुनता रहता, छवि माला,
जैसे सुंदर, मनमोहक-सा, प्रिय कालीन बनाने को
रंग सुहाने चुनती है, पर्वतबाला।
औरों ने तो गाया बढ़-चढ़, गाया है मुझसे बेहतर
दुख है, किंतु नहीं मैंने ऐसा गाया,
सफल ढंग से व्यक्त किया है या कि नहीं मनभावों को?
शब्दों का सुंदर-सा चोला, पहनाया!
बेशक ये कविताएँ मेरी इतनी अच्छी नहीं बनीं।
पर शब्दों में मेरा कुल जीवन उभरा,
मुझे बताओ, मेरे प्यारे, समझदार संपादकगण
क्यों तुम करते हो उनको कुछ और बुरा?
मैं हूँ इनका बाप, कि इनको मैं ही सिर्फ समझ सकता
किसी और के लिए काम है यह मुश्किल,
मुझे बताओ तुमको इनमें क्या-क्या दोष अखरता है
कान ऐंठ मैं खुद कर दूँगा ठीक अकल।
उन दिनों मैंने 'पहाड़िन' नाम का एक नाटक लिखा था। वह दागिस्तान के कई थियेटरों में खेला गया और उसका जो हाल हुआ, वह यह था।
नाटक के अंत में घटनाचक्र ऐसा रूप लेता है कि नायक नायिका की हत्या कर डालता है। अपनी पहाड़िन के लिए मुझे बहुत अफसोस था और जब मैंने हत्या का दृश्य लिखा, तो मेरा हाथ काँप रहा था और दिल खून के आँसू रो रहा था। मगर मैं कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता था। घटनाचक्र ही पहाड़िन की मौत की माँग करता था। अवार थियेटर ने उसे इसी रूप में प्रस्तुत किया। दर्शकों को नायिका के लिए चाहे दुख और मुझसे भी ज्यादा अफसोस हुआ, मगर वे समझ गए कि इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था।
दार्गिन थियेटर में नाटक का संपादन कर दिया गया। लड़की की हत्या के बजाय उन्होंने उसकी चोटी कटवा दी। बेशक यह सही है कि किसी पहाड़िन की चोटी काट देना उसके लिए बहुत ही शर्म की बात होती है। शायद ऐसा करना मौत से भी बुरा होता है, फिर भी यह मौत तो नहीं होती।
कुमीक थियेटरवालों ने न तो उसकी हत्या कराई और न ही चोटी काटी, बल्कि उसे अंधा कर दिया। यह तो बहुत भयानक बात है। शायद यह हत्या करने या चोटी काटने से ज्यादा भयानक बात है। मगर फिर भी पहाड़ी लड़की चोटी सहित जिंदा रह गई, क्योंकि कुमीक थियेटरवालों ने ऐसा चाहा।
चेचेनों ने अपने थियेटर में सबसे ज्यादा आसान रास्ता अपनाया। 'किसलिए हत्या कराई जाए,' उन्होंने तय किया, 'चोटी काटने या अंधा करने की भी क्या जरूरत है? पहाड़िन को जीने और मौज करने दो।'
तो इस तरह हर निर्देशक ने अपनी इच्छा और विचार के अनुसार नाटक को बदल दिया। मगर किसी ने भी उन्हें यह नहीं समझाया कि मेरी नायिका पर तरस खाते और उसकी जान बचाते हुए वे नाटक की हत्या कर रहे हैं और नाटककार की बात तो एक तरफ रही, दर्शकों के साथ भी अन्याय कर रहे हैं।
पिता जी ने एक बार वह अखबार मिलने पर जिसमें उनकी कविता छपी थी, हमसे कहा -
'लगता है कि मेरी कविता किन्हीं कसाइयों के हाथों में हो आई है। उसका कोई हिस्सा भी तो सही-सलामत नहीं बचा।'
महमूद... महमूद ने कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि उसके जीवनकाल में उसकी एक भी किताब नहीं छपी थी। पर यदि वह यह देख पाता कि इसी तरह के किसी संपादक ने उसकी कविताओं को कैसे बदल डाला है, तो वह दूसरी बार मर जाता।
आधुनिक कार में पहाड़ी पगडंडी पर जाना मुमकिन नहीं। अगर संपादकगण परलोक सिधार गए लेखकों को भी नहीं छोड़ते, तो भला मैं उनसे यह कैसे कह सकता हूँ कि वे मेरी रचना को न छुएँ?
मगर, मेरे संपादक , मैंने जो कुछ कहा है, उस सबको अपने ऊपर ही लागू नहीं कर लेना। मैं ऐसे संपादकों को भी जानता हूँ, जो बड़े समझदार और सुलझे हुए सलाहकारों के रूप में लेखक के पास आते हैं। मैं जानता हूँ कि तुम भी ऐसे ही हो। लगता है कि तुम्हारे साथ काम करने में बड़ा सुख और चैन मिलता है। तुम निश्चिंत रह सकते हो कि मैं अपनी पांडुलिपि के हाशिये में तुम्हारी खुशी व्यक्त करनेवाले विस्मयचिह्नों, तुम्हारी परेशानी जाहिर करनेवाले प्रश्न-चिह्नों और उन 'तीरों' की तरफ पूरा ध्यान दूँगा, जो यह जाहिर करेंगे कि पुस्तक को बेहतर बनाने के लिए तुम इंगित पंक्तियों को बदल देना चाहते हो।
मेरी किताब में संभवतः ऐसी पंक्तियाँ है, जो ढंग से कसी हुई नहीं हैं और पुराने सड़े हुए दाँत की तरह हिलती-डुलती हैं। संभवतः मैंने अपने को दोहराया भी है। तुमसे अनुरोध करता हूँ कि ऐसे स्थल खोज निकालो, उनके नीचे निशान लगा दो, उन्हें मुझे दिखाओ। एक सिर अच्छा होता है और डेढ़ बेहतर! मुझे आशा है कि हमारे तो एक जैसे अच्छे दो सिर और चार हाथ होंगे और हमारा काम खूब बढ़िया ढंग से चलेगा! कल झगड़ा करने के बजाय आज झड़प हो जाए तो ज्यादा अच्छा है। उम्र भर झगड़ते रहने के बजाय एक बार लड़ लेना बेहतर है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेरी बहुत ज्यादा तारीफ नहीं करना।
किसी शिकारी ने इसलिए एक खरगोश की तारीफ की कि वह डरा नहीं और उछलकर खुले टीले पर सामने आ गया। शिकारी ने तो उस पर गोली भी नहीं चलाई। खरगोश को घमंड हो गया और वह किसी दूसरे शिकारी के सामने भी उसी तरह कूदकर टीले पर आ गया। मगर यह शिकारी दूसरे ढंग का था। आप आसानी से ही यह समझ सकते हैं कि इसका क्या नतीजा निकला होगा।
मैं जानता हूँ कि कुल मिलाकर तो तुम्हारा काम ऐसा है, जिसके लिए कोई भी तुम्हें धन्यवाद नहीं देता। पाठक जब किताब हाथ में लेता है, तो यह देखता है कि किसने उसे लिखा है, किसने उसके चित्र बनाए हैं, मगर वह यह कभी नहीं देखता कि उसका संपादक कौन है। बस, कुछ ऐसा ही ढंग है लोगों का!
आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि कवि जनता का प्रवक्ता होता है। मगर पता चलता है कि कभी-कभी संपादक भी जनता की ओर से बोलता है। एक बार मैं संपादक के पास अपने दिल की रानी के बारे में एक प्रेम-गीत लेकर गया। संपादक ने उसे एक तरफ को रखते हुए कहा कि वह उसे नहीं छाप सकता।
'क्यों?'
'जनता इसे नहीं पढ़ेगी। जनता को तुम्हारी पत्नी से संबंधित कविता से क्या लेना-देना है!'
उसी वक्त मैंने यह चतुष्पदी लिखी -
तुझे समर्पित थी जो कविता, संपादक ने फिर ठुकराई,
कहा, तुम्हारी इस कविता को, जनता नहीं पढ़ेगी भाई
लेकिन हाँ, मेरी यह कविता, नहीं मुझे उसने लौटाई,
कहा, सुनाऊँगा पत्नी को, इतनी उसके मन पर छाई।
पिता जी कहा करते थे कि लेखक और कवि मोटर ड्राइवरों के समान होते हैं, जो कुल मिलाकर ढंग से मोटर चलाते रहते हैं, मगर कभी-कभी उनसे गलती भी हो जाती है और ये यातायात के नियमों का उल्लंघन कर जाते हैं। इस सिलसिले में संपादक मिलीशियामैनों के समान होते हैं। पिता जी ने कुछ देर सोचकर एक बार यह पूछा -
'तुम्हारा क्या ख्याल है, एक ड्राइवर के लिए तीन मिलीशियामैन कुछ ज्यादा नहीं हैं?'
मगर मिलीशियामैनों के बिना भी काम नहीं चल सकता। एक दावत में उपस्थित हर व्यक्ति के लिए बारी-बारी से जाम उठाया जाता था। वहाँ एक मिलीशियामैन भी था। दावत के तामादा (चौधरी) ने मिलीशियामैन के नाम का जाम उठाया। मगर तभी उपभोक्ता सहकारी समिति के अध्यक्ष ने, जो वहाँ हाजिर था, अपना जाम नीचे रखकर कहा -
'कम्युनिज्म में मिलीशियामैन नहीं होंगे। उनका कोई भविष्य नहीं है। किसलिए उसका जाम पिया जाए!'
मिलीशियामैन ने इसका यह जवाब दिया -
'कम्युनिज्म में मिलीशियामैन होंगे या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ उपभोक्ता सहकारी समिति होगी या नहीं।'
खैर, मजाक तो मजाक रहे, मेरे संपादक, आओ मैं तुम्हें यह बताऊँ कि कौन-से क्षण मुझे सबसे ज्यादा अच्छे लगते हैं? वे जब हम-तुम कागजों के ढेर के बीच काम की मेज पर नहीं, बल्कि ढंग से सजी हुई खाने की मेज पर बैठे होते हैं। हाँ, और वे सुखद क्षण भी बीत चुके हैं, जब तुम मेरी पांडुलिपि पर 'कंपोजिंग के लिए!' इसके बाद 'प्रेस के लिए!' और बाद में 'प्रकाशन के लिए!' लिखते हो। तुम्हारे इशारे के मुताबिक ही किताब की कंपोजिंग होती है, वह छपती है और पाठकों के हाथ में पहुँचती है। जरा ख्याल तो करो कि तुम कैसे शब्द लिखते हो - 'प्रकाशन के लिए!' केवल इसी के लिए तुम्हारे सारे गुनाह माफ किए जा सकते है। सिर्फ इसी के लिए जाम उठाया जा सकता है। जल्दी से ये शब्द लिख दो और मैं तुम्हें अपने हस्ताक्षर सहित पहली प्रति भेंट कर दूँगा।
निश्चय ही मैं यह चाहता हूँ कि वह वक्त जल्दी-से आ जाए, जब दुनिया में कोई भी रहस्य न रहे। मगर क्या हम उसे कवि कह सकते हैं, जो दुनिया के सामने किसी भी रहस्य का उदघाटन नहीं करता यानी वह नहीं बताता, जो उसे उसके पहले मालूम नहीं होता? मैं कवि हूँ और दुनिया में आकर दिक् और काल पर से ठीक वैसे ही पर्दा हटाता हूँ, जैसे दूल्हा दुलहन के मुँह पर से घूँघट हटाता है। शादी के वक्त केवल दूल्हे को ही ऐसा करने का अधिकार होता है और इसके बाद दुलहन का चेहरा सभी देख पाते हैं। केवल कवि ही जीवन में ऐसा करने में समर्थ है और लोगों का वास्तविकता से साक्षात्कार होता है, वे उसे देखकर आश्चर्यचकित होते हैं, उन्हें उन चीजों के बारे में हैरानी होती है, जिन्हें वे पहले नहीं देख पाए थे - संसार का सौंदर्य या मानवीय आत्मा का सौंदर्य, जो बुराई की शक्तियों का विरोध करते हैं।
संपादक, मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि बातूनियों को वह सब नहीं कहने दो, जो अनकहा ही रहना चाहिए, मगर उसे भी नहीं छिपाओ, जो मैं कवि के रूप में सामने ला रहा हूँ। मेरे बेल-बूटों, मेरी सजावट और मेरे नमूनों को संदेह की दृष्टि से नहीं देखो। अगर मेरे कालीन के बेल-बूटों में कहीं कोई गलती भी रह गई है, तो ऐसा न करना कि उस जगह पर स्याही फेर दो या उसे काट डालो। ऐसा करने से या तो वहाँ धब्बा पड़ जाएगा या सूराख हो जाएगा।
इसके अलावा, किसी विचार को इसलिए गलत नहीं कहना, कि वह तुम्हारे विचार जैसा नहीं है!
इसके अलावा, रोटी, चीनी, मक्खन और कीलों को तुला पर तोला जाता है, मगर प्यार को नहीं!
इसके अलावा, छींट, कमरे की ऊँचाई, कब की बाड़ को मीटरों में मापा जाता है, मगर सौंदर्य को नहीं!
इसके अलावा, जो सबसे ज्यादा समझदार बनने की कोशिश करता है, वह वास्तव में जितना मूर्ख होता है, उससे भी ज्यादा मूर्ख सिद्ध होता है!
इसके अलावा, मैं भी वयस्क हूँ और मुझ पर किसी बात के लिए थोड़ा-सा विश्वास तो करो!
मैं यह समझता हूँ कि एक आदमी के पास अधिक और दूसरे के पास कम रहस्य होते हैं, क्योंकि अबूतालिब ने कहा है कि अगर पानी सड़ जाए, तो चाहे वह घुटनों तक ही ऊँचा हो, तल दिखाई नहीं देगा।
नोटबुक से। जब मैं छोटा था, तो मुझे घर में सबसे ज्यादा बातूनी माना जाता था। बाहर गली में जो कुछ सुनता, वह जरूर ही घर पर कह सुनाता और जो कुछ घर पर सुनता, जरूर ही गली में जा सुनाता।
जब-तब एक बुजुर्ग मेरे पिता जी के पास आते। वे इधर-उधर नजर दौड़ाते और बड़े महत्वपूर्ण ढंग से फुसफुसाकर कहते -
'हमजात, तुमसे दूसरे कमरे में दो-चार बातें कर सकता हूँ?'
वे दूसरे कमरे में चले जाते और वहाँ कुछ खुसुर-फुसुर करते। कई बार ऐसा ही हुआ। बुजुर्ग एक बार फिर आए।
'हमजात, दूसरे कमरे में तुम से दो-चार बातें कर लूँ!'
'बस काफी हो चुका यह खेल!' पिता जी ने जवाब दिया। 'तुम छिपा-छिपाकर जो कुछ फुसफुसाते हो, उसे तो हमारे रसूल के सामने भी कहा जा सकता है। इसलिए जो कहना है, कहो और बिल्कुल नहीं डरो।'
हाँ, मुझे तो बचपन से ही रहस्य पसंद नहीं थे।
गीतों को खुलकर, ऊँची आवाज में और ऊँची जगह पर चढ़कर गाया जाता है ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उन्हें सुन सकें।
इसके अलावा, अपने हर शब्द के लिए मैं ही जिम्मेदार नहीं हूँ। मेरा अनुवादक भी तो है।
अनुवादक
मैं अवार हूँ, अवार ही पैदा हुआ था और दूसरा कुछ नहीं बन सकता। आँख खोलते ही जिन लोगों को मैंने सबसे पहले देखा, वे भी अवार थे। पहले शब्द भी मैंने अवार भाषा ही के सुने। मेरे पालने पर झुककर मेरी माँ ने जो पहली लोरी गाई, वह भी अवार भाषा में ही थी। अवार भाषा मेरी मातृभाषा बन गई। मेरी ही क्यों, सभी अवार लोगों की यही सबसे मूल्यवान चीज है।
अवार लोगों की संख्या कुछ ज्यादा नहीं है, वे सिर्फ तीन लाख हैं। मगर यह संख्या कुछ कम भी नहीं है। दागिस्तान में उस भाषा के कवि भी हैं, जो सिर्फ दो हजार लोगों की भाषा है।
राज्य-सीमा लोगों को अलग करती है, मगर उनकी भाषाएँ उन्हें और भी अधिक अलग करती हैं। सीमाएँ तो बदल जाती हैं और कभी-कभी तो बिल्कुल खत्म हो जाती हैं या केवल औपचारिकता ही बनकर रह जाती हैं। मगर भाषा तो किसी जाति के लोगों को सदा-सदा के लिए मिलती है और उसे बदलना या मिटा देना मुमकिन नहीं।
उस जमाने की कल्पना करना भी मुश्किल है, जब अवार लोग पुश्किन से अनभिज्ञ थे, लेर्मोंतोव को नहीं पढ़ते थे, तोलस्तोय को नहीं जानते थे और चेखोव की रचनाओं का रस-पान नहीं करते थे।
पिता जी कहा करते थे कि यह हमारा बड़ा सौभाग्य है कि पहाड़ों में भी पुश्किन का पेड़ लग गया है। इस पेड़ को चाहे कितना ही क्यों न झाड़ो, उसके मीठे और रसीले फलों का कभी अंत ही नहीं होता।
अबूतालिब कहा करते थे कि उन्हें धन्यवाद देता हूँ, जिनकी बदौलत मेरे अँधेरे तलघर में प्यारे चेखोव पहुँचे! उनका भी शुक्रिया अदा करता हूँ, जो तलघर से मेरे गीतों को मास्को के क्रेम्लिन की दीवारों तक ले गए!
और मैं कहता हूँ कि काकेशिया ने जनरल के सामने नहीं, जवान लेफ्टीनेंट की कविताओं के सामने सिर झुकाया।
मेरे साथ एक बार एक अनोखी घटना घटी। दागिस्तान में मेरी कविताओं और खंड-काव्यों के रूसी अनुवाद का संकलन निकलनेवाला था। संपादक ने पांडुलिपि के पृष्ठ उलटे-पलटे और बोला -
'तुमने इसमें 'पोल्तावा' खंड-काव्य क्यों नहीं शामिल किया!'
'मगर वह तो मेरी रचना नहीं, पुश्किन की रचना है। मैंने तो अवार भाषा में उसका केवल अनुवाद किया है। पुश्किन के खंड-काव्य को रूसी भाषा के अपने संकलन में कैसे शामिल कर सकता हूँ!'
पर खैर, हम संपादक के प्रति कठोरता से काम नहीं लेंगे। वास्तव में दूसरी भाषाओं से अवार भाषा में अनूदित अच्छी रचनाओं के अवार लोग अपनी अवार रचनाओं की तरह ही अभ्यस्त हो गए हैं और उनके बिना हम अपने अवार साहित्य की कल्पना ही नहीं कर सकते।
मुझे मालूम है कि कभी-कभी मेरी पीठ-पीछे ऐसा कहा जाता है - 'अरे हाँ, रसूल है तो लायक आदमी, मगर बहुत नहीं। मास्कोवासी अनुवादकों ने उसके लिए बहुत कुछ किया है।'
मैं इससे इनकार नहीं करूँगा। सच तो यह है कि अगर अनुवादक न होते, तो मैं भी न होता।
पहली बात तो यह है कि उन्होंने मुझे हाइने, बर्न्स, शेक्सपीयर, शेख सादी, सेर्वांतेस, गेटे, डिकंस, लांगफेलो, हिटमैन और उन सभी से परिचित होने की संभावना दी, जिन्हें मैंने अपने जीवन में पढ़ा और जिनके बिना मैं लेखक ही न बन सकता।
दूसरे, इन अनुवादकों ने ही मेरी कविताओं के लिए मार्ग प्रशस्त किए। वे उन्हें तूफानी नदियों, ऊँचे पर्वतों, मोटी दीवारों, सीमा-चौकियों और सबसे मजबूत हदों - दूसरी भाषा की हदों, बहरेपन, अंधेपन और गूँगेपन की हदों के पार ले गए।
कभी-कभी मैं अपने से यह सवाल करता हूँ कि क्या चीज अधिक महत्वपूर्ण है - अनुवादक का मेरी भाषा जानना (चाहे मेरी कविता उसके लिए पराई हो) या यह कि वह मेरे काव्य को अपनी आत्मा, अपने हृदय से जाने-समझे और उसे अपना ही माने?
1937 में मखचकला में पुश्किन की कविता 'गाँव' के सर्वश्रेष्ठ अनुवाद की प्रतियोगिता आयोजित की गई। चालीस कवियों ने अवार भाषा में उसका अनुवाद किया। उनमें से अधिकांश रूसी भाषा जानते थे। फिर भी प्रथम पुरस्कार हमजात त्सादासा को मिला, जो उस समय तक रूसी भाषा बिल्कुल नहीं जानते थे।
यह जरूरी है कि अनुवादक भी कवि, लेखक, कलाकार हो। यह भी जरूरी है कि वह वह अपने को उसी तरह अपनी जनता का बेटा अनुभव करे, जैसे मैं अपने को अनुभव करता हूँ।
ऐसे रूसी हैं, जो अवार भाषा पढ़ सकते हैं, मगर हाय, वे कवि नहीं हैं। रूसी कवि तो हैं, मगर हाय, वे अवार भाषा नहीं जानते। तो क्या किया जाए? शब्दशः पंक्ति-अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है।
रूसी गाँवों में लट्ठों के घर को एक गाँव से दूसरे गाँव में कैसे ले जाया जाता है। मैंने यह देखा है। पूरे का पूरा झोंपड़ा ले जाना तो मुमकिन नहीं। उसके लट्ठे-कुंदे और तख्ते अलग करके दूसरी जगह ले जाए जाते हैं और फिर उन्हें वहाँ जोड़ा जाता है।
शब्दशः पंक्ति-अनुवाद भी झोंपड़ा ही है, जिसे दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए खंड-खंड किया जाता है। यह लट्ठों, तख्तों, छत की लोहे की चादरों और ईंटों का ढेर है। अनुवादक इस आकृतिहीन ढेर से नया झोंपड़ा बनाता है। अगर कोई लट्ठा गल-सड़ गया है, तो वह उसे बदल डालता है, अगर कोई तख्ता रास्ते में खो गया है, तो वह नया तख्ता लगा देता है। अगर खिड़की की नक्काशीवाली तख्ती का कोई बेल-बूटा खराब हो गया है, तो वह उसे ठीक-ठाक कर देता है।
खिड़कियों के शीशे साफ कर दिए जाते हैं, चूल्हे में आग जला दी जाती है ताकि चिमनियों में से धुआँ निकलने लगे, दरवाजे के पास बच्चे खेलने-कूदने लगते हैं और छत के नीचे अबाबीलें घोंसले बना लेती हैं।
शब्दशः पंक्ति-अनुवाद क्या है? वह व्यक्ति जिसकी आँखों की ज्योति जाती रही है और जिसके हृदय की धड़कन बंद हो गई है। मगर डॉक्टर आता है, सूई लगाता है, खून देता है, हृदय की मांसपेशियों की मालिश करता है और मानवीय शरीर में फिर से जीवन आ जाता है।
शब्दशः पंक्ति-अनुवाद क्या है? एक नाई ने मेरे बाल काटे, दाढ़ी बनाई, बालों को सँवारा और यह कहकर विदा किया -
'शब्दशः पंक्ति-अनुवाद के रूप में मेरे पास आए थे और अनुवाद बनकर जा रहे हो।'
चूँकि नाई का जिक्र आ ही गया है, तो लगे हाथों आपको एक घटना भी सुना देता हूँ।
यह घटना क्यूबा के सांतियागो शहर में घटी। मैं वहाँ पहुँचा ही था कि मैंने बाल कटवाने तथा दाढ़ी बनवाने का फैसला किया। मैं नाई के पास गया और संकेतों से उसे अपनी बात समझाई।
क्यूबा में दाढ़ी बनाते समय आरामकुर्सी में वैसे ही लिटा दिया जाता है जैसे कि पलंग पर। मुझे भी लिटा दिया गया। साबुन लगाया जाने लगा। जब तक क्यूबाई नाई के उस्तरे ने मेरे गालों को नहीं छुआ, सब कुछ ठीक-ठाक रहा। या तो उस्तरा बिल्कुल कुंद था या नाई निकम्मा था, कारण कुछ भी हो, मगर मैं तो दर्द के मारे बड़ी मुश्किल से ही अपनी चीख को रोक पा रहा था। कुछ देर तक तो मैंने दर्द बर्दाश्त किया और आखिर यह समझ गया कि पूरी दाढ़ी बनने तक मैं यह सहन नहीं कर सकूँगा। रूसी और अवार भाषा बोलते हुए मैं अपने गालों की ओर संकेत करने लगा। नाई घबरा गया, भागकर बाहर गया और थोड़ी देर बाद सफेद लबादा पहने एक व्यक्ति को साथ लिए हुए लौटा। इस व्यक्ति ने अपना बक्स खोला और दाँत निकालनेवाले औजार निकाल-निकालकर बाहर रखने लगा। दाढ़ी बनाने की आरामकुर्सी से मैं अचानक दाँतों के डॉक्टर की कुर्सी में बैठा नजर आया। तो यह नतीजा निकला मेरे और नाई के एक-दूसरे को न समझ पाने का। बस, अगर जरा-सी देर और हो जाती, तो मैं अपने अच्छे-भले दाँतों से हाथ धो बैठता।
अनुवादक अक्सर कविताओं के सारे दाँत निकाल डालते हैं और उन्हें सिसकारते-फुसकारते हुए पोपले मुँह के साथ दुनिया में घूमने के लिए भेज देते हैं।
नोटबुक से। जब हम विदेश जाते हैं, तो जातीय कारीगरी की कुछ चीजें भी इसलिए अपने साथ ले जाते हैं कि आतिथ्य-सत्कार के लिए किसी को उन्हें उपहारस्वरूप दे सकें। चुनांचे जब मैं जापान गया, तो बालखारी के कारीगरों के कलापूर्ण हाथों की बनी हुई कुछ सुरहियाँ अपने साथ ले गया। हिरोशिमा में एक चित्रकार-दंपति मेरे यहाँ मेहमान आए। हम बहुत देर तक बातें करते रहे और मानो दोस्त-से बन गए। 'अगर चित्रकारों को नहीं, तो और किसे मैं बालखारी की कलात्मक वस्तुएँ भेंट करूँगा,' मैंने मन-ही-मन सोचा। बड़े उत्साह से मैंने अपना सूटकेस खोला और तभी मेरा कलेजा धक से रह गया - मेरी सुराहियों के तो बस टुकड़े ही बाकी रह गए थे। ऐसा लगता था मानो उन पर हथौड़ा चलाया गया हो - ऐसे चकनाचूर हो गई थीं वे। बहुत मुमकिन है कि मास्को, भारत या टोकियो के हवाई अड्डे पर कुलियों ने मेरे सूटकेस को बहुत लापरवाही से फेंका हो। मुझे यह मालूम नहीं। मगर उस वक्त तो मैं यह चाहता था कि जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। कारण कि मैं उपहार देने की बात कह चुका था और जापानी चित्रकार-दंपति मेज के गिर्द उसकी प्रतीक्षा की मु्द्रा में बैठे थे। वे भी परेशानी से मेरी ओर देखने लगे, क्योंकि मैं तो सूटकेस के ऊपर बुत बना खड़ा रह गया था। न हिला-डुला और न मेरे मुँह से कोई शब्द ही फूटा।
आखिर मेरे जापानी मेहमान भी समझ गए कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। वे मेरे करीब आए और उन्होंने सुराहियों के टुकड़े देखे। उन्होंने दुखी होकर सिर हिलाया और कंधा थपथपाते हुए मुझे तसल्ली देने लगे। किसी दूसरे वक्त वे कभी कंधा न थपथपाते, क्योंकि वे बहुत ही सलीकेदार लोग हैं और घनिष्ठता जताना पसंद नहीं करते। इसका मतलब तो यही है कि मैं बहुत ही दुखी, बहुत ही परेशान हो उठा था।
मैंने अखबार में टुकड़े समेटे और उन्हें कूड़ेदान में डाल देना चाहा। मगर चित्रकारों ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने बड़ी सावधानी से एक-एक टुकड़ा लपेटा और अपने घर ले गए।
कुछ दिनों बाद इन्हीं चित्रकार-दंपति ने मुझे अपने घर आमंत्रित किया। अपनी उन सुराहियों को मैंने जब सही-सलामत और ऐसी अच्छी हालत में पाया मानो वे अभी-अभी कुम्हार के चक्के से उतरी हों, तो मेरी हैरानी का कोई ठिकाना न रहा। मैं अब तक यह नहीं समझ पाता कि ऐसे चूरे को इतनी होशियारी से जोड़ना कैसे संभव था।
कहते हैं कि तड़क जानेवाली सुराही कभी साबुत नहीं हो पाती, हर हालत में उससे पानी रिसेगा। जापानी चित्रकारों द्वारा जोड़ी गई सुराहियों में हमने दागिस्तानी ब्रांडी भी डाली और जापानी साके भी डाली, मगर एक बूँद भी नहीं रिसी।
जापानी चित्रकारों को देखते हुए मुझे अपने श्रेष्ठ अनुवादकों का ध्यान हो आया। मेरी कविताओं के शब्दशः पंक्ति-अनुवाद टूटी सुराही के टुकड़ों जैसे लगते थे। बाद में उन्हें जोड़ा गया और वे नई-सी हो गई और उनके अवार बेल-बूटे भी ज्यों-की-त्यों उनकी शोभा बढ़ाते रहे।
जाहिर है कि अगर सुराही का हत्था नहीं है, तो अनुवादक को उसे लगाना नहीं चाहिए या एक की जगह दो तल नहीं बनाने चाहिए।
कुछ ही समय पहले दागिस्तान के प्रकाशनगृह ने 'हाजी मुराद' का अवार भाषा में नया अनुवाद प्रकाशित किया। मैं उसे पढ़ने लगा तो क्या देखा कि 'हाजी मुराद' के दो परिच्छेद बढ़ गए हैं। मैंने अनुवादक से पूछा -
'ये दो परिच्छेद कहाँ से आ गए?'
'बात यह है कि तोलस्तोय ने तो यह लघु-उपन्यास अक्तूबर क्रांति से पहले लिखा था। इसलिए उसमें कुछ गलत दृष्टिकोण हैं। इसके अलावा, पाठकों को हाजी-मुराद के सिर और वंशजों के भविष्य के बारे में बताना भी जरूरी था।'
नोटबुक से। पिता जी की एक कविता का रूसी में अनुवाद किया गया। अनुवादक संभवतः कच्चा था। पिता जी ने रूसी और अवार भाषा जाननेवाले एक आदमी से अनुवाद का फिर से अनुवाद करके उसका सार बताने को कहा। जब ऐसा किया गया, तो पिता जी ने हैरानी से कहा -
'मेरा बेटा लंबे सफर से लौटा है और मैं उसे पहचान नहीं पाया। नहीं, ऐसे कायाकल्प से तो यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि मेरे बच्चे यहीं पहाड़ों में बैठे रहें।'
हाँ, कविताओं के अनुवाद उन बेटों के समान होते हैं, जिन्हें माँ-बाप पढ़ने या काम करने के लिए गाँव से भेजते हैं। बेशक हर हालत में ही बेटे उसी रूप में गाँव नहीं लौटते, जिस रूप में वे घर छोड़कर जाते हैं।
बेटा कुछ पाकर या गँवाकर, डिप्लोमा लेकर या अदालत में पेशी भुगतकर, तगड़ा या कमजोर और बीमार होकर, विद्वान या औरतबाज का नाम पैदा करके, सभी रिश्तेदारों के लिए कीमती तोहफे लेकर या अपने कपड़े तक खोकर घर लौट सकता है।
मैं भी अपनी किताब को बड़े शहरों और लोगों में भेज रहा हूँ। अजनबी जगहों पर उसका कैसा रंग-ढंग रहेगा? क्या वह अपनी जनता, अपने तौर-तरीकों को भूल जाएगी?
मैं यह अच्छी तरह समझता हूँ कि पहाड़ पर बैठा बुरा आदमी (यामान) केवल इसलिए अच्छा आदमी (याक्शी) नहीं बन जाएगा कि वह घाटी में उतर आया है। इसलिए मैं अपनी पुस्तक के अनुवादक से अनुरोध करता हूँ कि अगर वह 'यामान' है, तो उसे वैसा ही रहने दीजिए। अगर मैं लंगड़ा और अंधा हूँ, तो मेरी बाँह पकड़कर मुझे मेरे घर से बाहर नहीं ले जाइए, मुझे अपने चूल्हे के पास, अपनी दहलीज पर ही बैठा रहनी दीजिए। मेरे ताँबे के बर्तनों पर कलई नहीं कीजिए, मेरी चाँदी पर सोने का मुलम्मा नहीं चढ़ाइए।
अबूतालिब ने यह बात सुनाई।
'मेरा एक बेटा और एक बेटी है। बेटी बहुत अच्छी है, बड़ी अनुशासित है और दूसरों के लिए मिसाल मानी जाती है। मगर बेटा शरारती और नटखट है। बेटी की रेडियो पर चर्चा होती है, अखबारों में उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है, क्योंकि वह अग्रणी कामगारिन है। बेटे के बारे में कभी स्कूल से तो कभी मिलीशिया के दफ्तर से शिकायतें आती हैं। बेटी के संबंध में यह कहा जाता है कि स्कूल, पायनियर संगठन, युवा कम्युनिस्ट संघ और देश ने उसका शिक्षण किया, उसे इतना अच्छा बनाया। मगर बेटे के बारे में यह कहा जाता है कि जन-कवि अबूतालिब ने उसे बड़े बुरे ढंग से पाला-पोसा है।'
यह किस्सा सुनकर मैंने सोचा कि कविताओं के अनुवाद के संबंध में भी ऐसी ही बात होती है। अनुवाद अच्छे होने पर मूल रचयिता की प्रशंसा की जाती है और यह भुला दिया जाता है कि अनुवादक कौन है। अगर अनुवाद बुरे होते हैं, तो अनुवादक को कोसा जाता है और मूल रचयिता का नाम बचा जाने की कोशिश की जाती है।
नहीं, मेरे अनुवादक-मित्र, भले-बुरे की जिम्मेदारी हम दोनों एक साथ अपने ऊपर लेंगे। हम दोनों का एक ही छकड़ा है। आओ, मिल-जुलकर उसे पहाड़ पर चढ़ाएँ और अपनी-अपनी दिशा में न खींचें। नहीं तो छकड़ा और उसके साथ-साथ हम दोनों भी जहाँ-के-तहाँ ही बने रहेंगे।
हमारे इलाके में एक अद्भुत घटना घटी। एक बड़ा पहाड़ अचानक अपनी जगह से हिला और नीचे की तरफ खिसक चला। वह मोचोख गाँव से थोड़ी दूर इधर की पहाड़ी नदी को रोककर रुक गया। भेड़ों के रेवड़ चरवाहे, चरवाहों के अलाव और उनके झोंपड़े किसी भी तरह की हानि के बिना बड़े शांत ढंग से पहाड़ के साथ-साथ नीचे आ गए। अब वह ज्यों-का-त्यों खड़ा है, मगर उसके दामन में झील बन गई है। और झील में ट्राउट मछलियाँ पाली जाती हैं। जब तक यह पहाड़ अपनी पुरानी जगह पर खड़ा था, कोई उस पर नहीं चढ़ता था। पर अब उसके इर्द-गिर्द हमेशा यात्रियों, अभियान-दलों, मछुओं और सैर-सपाटे के लिए आए स्कूली बालकों को देखा जा सकता है।
मैं चाहता हूँ कि मेरी किताब भी किसी तरह की हानि के बिना नई भाषा में पहुँच जाए। वह भी बाद में उसी तरह लोगों को अपनी तरफ खींचे जैसे मोचोख गाँव के पासवाला पहाड़। मुसलमानों में यह कहा जाता है कि जन्म के वक्त जैसी लकीरें पड़ जाती हैं, वैसा ही होकर रहता है। यह संभवतः इस रूसी कहावत - मेरे मन कुछ और है, साईं के मन कुछ और - के अनुरूप ही है। या और भी अधिक संक्षिप्त रूप से यों कहा जा सकता है - किस्मत का लिखा होकर रहेगा।
आलोचक
उसके बारे में लिखना सबसे ज्यादा मुश्किल काम है। अगर उसे भला-बुरा कहा जाए, तो यह समझा जाएगा कि हजरत उसकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से तिलमिला उठे हैं और बदला ले रहे हैं। अगर तारीफ करें, तो यह सोचा जाएगा कि भविष्य को ध्यान में रखते हुए चापलूसी हो रही है।
पिता जी कहा करते थे कि वे और आलोचक दोनों ही कवि हैं। मैं कविताएँ लिखता हूँ और वह मेरी कविताओं के बारे में लिखता है।
अबूतालिब ने कहा है एक दागिस्तानी आलोचक से -
'मैं अंगूरों की शराब बनाता हूँ और तुम उसका जायका चखते हो।'
आलोचक के बारे में अपने विचार प्रकट नहीं करूँगा, मगर उसे कुछ सलाहें देना चाहता हूँ।
1. बुरे को हमेशा बुरा और अच्छे को अच्छा कहो।
2. जिस चीज की तारीफ करते हो, बाद में उसी को बुरा नहीं कहो। अगर बुरा कहते हो, तो बाद में तारीफ नहीं करो।
3. राई को पहाड़ नहीं बनाओ और पहाड़ को राई बनाने की तो और भी कम कोशिश करो।
4. किताब में जो कुछ है, उसकी चर्चा करो, न कि उसकी, जो नहीं है।
5. अपने विचारों की पुष्टि के लिए बेलीन्स्की से शुरू करके सभी विद्वानों को उद्धृत नहीं करो। अगर ये विचार वास्तव में तुम्हारे ही हैं, तो अपनी ही अक्ल से उन्हें पुष्ट करने की कोशिश करो।
6. स्पष्ट विचारों को स्पष्ट और समझ में आनेवाली भाषा में व्यक्त करो। अस्पष्ट विचारों को व्यक्त ही नहीं करो।
7. हवा के रुख के साथ बदलनेवाले बादनुमा नहीं बनो।
8. जो कुछ अभी खुद नहीं समझते, उसके बारे में दूसरों को उपदेश देने की कोशिश नहीं करो।
9. अगर तुम्हारी जेब में सौ रूबल नहीं हैं, तो ऐसा ढोंग नहीं करो कि मानो वे तुम्हारे पास हैं।
10. अगर तुम बहुत अर्से से अपने गाँव नहीं गए और तुम्हें यह मालूम नहीं कि वहाँ क्या हाल-चाल है, तो यह दावा नहीं करो कि तुम अभी-अभी अपने गाँव से लौटे हो।
मेरी इन अभिलाषाओं में कुछ नई बात नहीं है। वे गुना की तालिका की पहली पंक्ति के समान हैं। फिर भी अगर हमारा हर आलोचक इन पर ईमानदारी से अमल करे, तो हमारी आलोचना कहीं अधिक अच्छी हो सकती है।
पाठक
मैंने संपादक, प्रकाशक, अनुवादक और आलोचक से तो बातचीत कर ली। अब सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति, जिसके लिए सभी किताबें लिखी जाती हैं, उस पाठक से कुछ शब्द कहना चाहता हूँ।
पाठक, मेरे मित्र! निश्चय ही तुम्हारी अपनी मनपसंद किताबें हैं। हम लेखकों की भी ऐसी किताबें हैं। कहा जाता है कि लेखक की प्रमुखतम पुस्तक वह है, जो वह अभी लिख नहीं पाया, मगर लिखेगा जरूर। मालूम नहीं कि बाकी लेखकों के बारे में यह कहाँ तक ठीक है, मगर मेरे संबंध में तो सोलह आने सही है।
हाँ, मैं एक जमाने से अपनी मातृभूमि के बारे में एक किताब लिखने का सपना देख रहा हूँ। बहुत अर्से से यह विचार मेरे दिमाग में घूम रहा है, मगर उसे किसी तरह भी अमली शक्ल नहीं दे पाया। संभव है कि प्रतिभा की कमी है, मुमकिन है कि हर दिन की दौड़-धूप इसमें रूकावट डालती है, या सब्र की कमी है या फिर हिम्मत साथ नहीं देती।
जैसे-जैसे वक्त गुजरता है, वैसे-वैसे खुद अपने और पाठक के सामने जिम्मेदारी का एहसास बढ़ता जाता है। हर विचार को लिख डालने के लिए हाथ लेखनी की तरफ बेधड़क नहीं बढ़ पाता। मातृभूमि के बारे में किताब, सभी किताबों से ज्यादा जिम्मेदारी का काम है।
यह किताब मैंने अभी तक लिखी तो नहीं, मगर मैंने उसके बारे में सोचा बहुत है और अब मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि यह कैसी होनी चाहिए। इस किताब - अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण किताब - के बारे में अपने विचारों को ही लिख डालने का आखिर मैंने निर्णय किया।
यह कोट नहीं, कोट का कपड़ा है। यह कालीन नहीं, कालीन के लिए धागे ही हैं। यह गीत नहीं, केवल हृदय की धड़कन है, जिससे गीत का जन्म होगा।
कहते हैं कि अगर तुमने प्रार्थना नहीं की, पर इतना सोच ही लिया कि प्रार्थना करना बुरा नहीं, तो इसी की बदौलत नरक में जाने से बच जाओगे।
कहते हैं कि दोस्त के पास जो कुछ है, दोस्त को उसी से खुशी होती है। अगर दोस्त के घर में सिर्फ बूजा ही है, तो क्या मेहमान दोस्त इसलिए नाराज हो जाएगा कि विदेशी शराबों से, जो न तो घर में और न आसपास ही कहीं पर हैं, उसकी खतिरदारी नहीं की गई?
कहते हैं कि अगर तुमने कोई नेकी नहीं की, तो इसके लिए भी शुक्रिया कि ऐसा करने का इरादा रखते थे।
पाठक, मेरे मित्र, हर पुस्तक तुम्हारे लिए ही लिखी जाती है। मैं प्रकाशक को अपनी बात का यकीन दिला सकता हूँ, संपादकों और आलोचकों से बहस कर सकता हूँ। मगर तुम्हारा फैसला ही असली और आखिरी होता है। जजों की भाषा में, उसके खिलाफ अपील नहीं हो सकती।
लेखक तो तुमसे भेंट करने के लिए ही जीता है। मेरे समूचे जीवन में तीन तरह की परेशानियाँ लगातार बनी रही हैं। तुमसे भेंट होने के पहले मैं प्रतीक्षा में और यह अनुमान लगाते हुए परेशान होता रहता हूँ कि हमारी यह भेंट कैसी रहेगी। फिर भेंट के समय मुझे परेशानी होती रहती है, जो कि स्वाभाविक है और समझ में आ सकती है। अंत में मैं भेंट की हर तफसील को याद करते और यह अंदाज लगाते हुए परेशान होता रहता हूँ कि मैंने कैसा प्रभाव छोड़ा।
अपने पाठकों के तरह-तरह के चेहरे मुझे दिखाई देते हैं। कुछ के माथों पर बल पड़ गए हैं। भला मैं ऐसे शब्द कहाँ से लाऊँ कि उनके ये बल दूर हो जाएँ? दूसरों ने ऐसा मुँह बना लिया है मानों कोई बदजायका और अटपटी चीज उसके मुँह में चली गई हो। तीसरों के चेहरे पर ऊब का भाव है, जो सबसे अधिक भयानक और निराशाजनक चीज है।
पहाड़ी लोगों से पूछा गया - किसलिए आप इतनी दूर और दुर्गम पहाड़ों में अपने गाँव बसाते हैं? आप तक पहुँचना लगभग असंभव और साथ ही खतरनाक भी है - पगडंडियाँ खड्डों के सिरों पर हैं, ऊपर से पत्थ्ार और चट्टानें टूटकर गिर सकती हैं। पहाड़ी लोगों ने जवाब दिया, 'अच्छे दोस्त तो सभी तरह के खतरों का सामना करते हुए मुश्किल रास्तों से भी हम तक पहुँच जाएँगे और बुरे दोस्तों की हमें जरूरत नहीं।'
पाठक, मेरे मित्र, मेरी उम्र चवालीस साल है। इस उम्र में आदमी को हर तरह की जिम्मेदारी के काम सौंपे जा सकते हैं। इस उम्र में लेखक को अपने हर शब्द के लिए जवाबदेह होना चाहिए।
अगर मेरी किताब में तुम्हें कोई ऐसा विचार मिले, जो किसी दूसरी किताब में रैन-बसेरा कर चुका है, तो उसे अपने दिमाग से ऐसे ही निकाल फेंकना, जेसे कभी पहाड़ों में सुहागरात के बाद उस दुलहन को निकाल दिया जाता था, जिसने उस रात तक अपनी इज्जत को बचाकर नहीं रखा होता था।
अगर मेरी पुस्तक में तुम्हें कोई सही विचार मिले, तो उसके नीचे रेखा खींच देना। अगर कोई गलत विचार मिले, तो दो रेखाएँ खींच देना।
अगर तुम्हें इसमें रत्ती भर भी झूठ मिले, तो किताब को ही फौरन दूर फेंक देना - यह कौड़ी काम की नहीं।
विदा लेने से पहले एक किस्सा और सुनाए देता हूँ।
अमीर खान, उसके बेटे और भेड़ की मोटी दुम के लहसुनवाले खीनकालों का किस्सा। कहते हैं कि अवारिस्तान में कभी एक बहुत ही अमीर रहता था। बेटे की तमन्ना में उसने तीन बार शादी की, मगर एक भी बीवी ने न सिर्फ वारिस ही पैदा किया, बल्कि खान को बेटी तक का मुँह देखना न नसीब हुआ। चुनांचे उसे चौथी शादी करनी पड़ी।
आखिर खान के यहाँ बेटा हुआ। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। ढोल-नगाड़े और तुरहियाँ-नफीरियाँ बजाई गईं, खूब नाच-गाना हुआ। तीन दिन और तीन रातों तक दावतें उड़ती रहीं।
मगर खान के आलीशान महल में बहुत अर्से तक यह खुशी न बनी रह सकी। बेटा बीमार हो गया और उसकी बीमारी किसी की भी समझ में न आई। कैसी भी लोरियाँ क्यों न गाई जातीं, मगर उसकी आँख न लगती। कितनी भी बढ़िया खुराक उसे क्यों न गाई जातीं, मगर उसकी आँख न लगती। कितनी भी बढ़िया खुराक उसे क्यों न दी जाती, वह कुछ भी न खाता-पीता। सब समझने लगे कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। न तो विदेशों से बुलाए गए हकीम-वैद्य, न हिंदुस्तानी गंडे-तावीज और न तिब्बती जड़ी-बूटियाँ ही खान के इकलौते बेटे को तंदुरुस्त कर सकीं। बेटे की मौत शायद खान की मौत भी होती।
पड़ोस के गाँव से एक मामूली गरीब आदमी खान के पास आया। उसे तो कोई आदमी भी मानने को तैयार न था। उसने कहा कि वह वारिस को बचा सकता है। खान के अमीर-उमरा ने उसे भगा देना चाहा, मगर खान ने उन्हें ऐसा करने से रोका। 'बेटा तो यों भी मर ही जाएगा,' उसने मन में सोचा, 'इसका इलाज भी आजमाकर देख लेने में क्या हर्ज है?'
'मेरे बेटे की जान बचाने के लिए तुम्हें किस चीज की जरूरत है?'
'मुझे तुम्हारी बीवी से एकांत में कुछ बात करनी होगी।'
'क्या कहा? मेरी बीवी के साथ एकांत में? तुम्हारा दिमाग चल निकला है! दफा हो जाओ मेरी आँखों के सामने से!'
गरीब आदमी मुड़ा और चल दिया। खान ने सोचा, 'बेटा तो यों भी मर ही जाएगा। अगर वह मेरी बीवी से एकांत में बात कर लेगा, तो मेरा इससे क्या बिगड़ जाएगा?'
'ए गरीब आदमी, लौट आओ, हमने अपना ख्याल बदल लिया है। हम तुम्हें अपनी बीवी से बात करने की इजाजत देते हैं।'
गरीब आदमी और खान की बीवी जब अकेले रह गए, तो गरीब आदमी ने पूछा - 'तुम यह चाहती हो कि तुम्हारा बेटा जिंदा और तंदुरुस्त रहे?'
खान की बीवी ने कोई जवाब देने के बजाय उसके सामने घुटने टेक दिए और मिन्नत-समाजत करने लगी।
'तो मुझे यह बता दो कि इसका असली बाप कौन है?'
खान की बीवी ने घबराकर इधर-उधर नजर दौड़ाई।
'डरो नहीं। हमारी बातचीत हमारे साथ ही कब्र में जाएगी। नहीं तो तुम्हारा बेटा जिंदा नहीं रहेगा।'
'खान को बेटे की बड़ी चाह थी। मैं जानती थी कि अगर बेटा पैदा नहीं करूँगी तो मुझे भी उसकी पहली बीवियों की तरह निकाल दिया जाएगा। इसलिए मैं पहाड़ पर गई और वहाँ एक मामूली नौजवान चरवाहे के साथ मैंने रात बिताई। उसके बाद ही खान के वारिस का जन्म हुआ...'
'ओ ऊँचे नामवाले खान,' इस बातचीत के बाद तथाकथित हकीम ने कहा, 'मैं जानता हूँ कि तुम्हारा बेटा कैसे बच सकता है। इसी घड़ी से उसका पालना ऐसे अलाव के पास रखवा देना चाहिए जैसे कि चरवाहे पहाड़ों में जलाते हैं। उसके पालने में भेड़ की खाल बिछाई जाए और उसे ऐसी खुराक दी जाए जैसी कि तुम्हारे चरवाहे खाते हैं।'
'मगर... मगर वे तो भेड़ की मोटी दुम के लहसुनवाले खीनकाल खाते हैं। मेरा यह नन्हा-सा वारिस भला उन्हें कैसे खाएगा...'
गरीब आदमी मुड़ा और चल दिया। 'बेटा तो यों भी मर जाएगा,' खान ने सोचा और तश्तरी में खीनकाल लाने का हुक्म दिया।
खान की बीवी अपने हाथों से उन्हें तैयार करने लगी। उसने उसी तरह खीनकाल तैयार किए जैसे पहाड़ों में बिताई गई रात के पहले, जो उसके जीवन की सबसे प्यारी रात थी, नौजवान चरवाहे के लिए तैयार किए थे। उसने बेटे के सामने वैसे ही लकड़ी की तश्तरी रखी जैसे तब नौजवान चरवाहे के सामने रखी थी।
खीनकाल बड़े-बड़े पत्थरों जैसे बड़े और गोल-गोल थे। भेड़ों की उबली हुई मोटी दुमों से चर्बी चू रही थी। नजदीक ही गागर में पहाड़ी चश्मे का पानी रख दिया गया।
जैसे ही लहसुन और उबली चर्बी की गंध वारिस की नाक में पहुँची, उसने आँखें खोल दीं, उठकर बैठ गया और अचानक दोनों हाथों से सबसे बड़ा खीनकाल उठा लिया। इसी क्षण से पिता की ताकत बेटे की रगों में दौड़ने लगी। वह भूखे बबर की तरह खीनकालों को हड़पने लगा। वह दिनों के बजाय घंटों में बढ़ने लगा और जल्द ही गठा हुआ खूबसूरत जवान बन गया। उसकी बीमारी का तो नाम-निशान ही बाकी न रहा।
शायद ऐसी घटना कभी न घटी हो, मगर मैं एक बात जानता हूँ कि साहित्य जब अपने बाप-दादों की खुराक छोड़कर पराये, बढ़िया विदेशी भोजनों के फेर में पड़ जाता है, जब वह अपनी जनता की परंपराओं और रीति-रिवाजों, भाषा और मिजाज से नाता तोड़ लेता है, उसके साथ विश्वासघात करता है, तो वह बीमार हो जाता है, उसका दम निकलने लगता है और कोई भी दवाई उसे बचा नहीं पाती।
मेरे ख्याल में बस, इन शब्दों के साथ ही मैं अपनी इस किताब को खत्म करूँगा। गर्मी के एक गर्म दिन मैंने इसे शुरू किया था और अब ठिठुरी हुई पतझर है। इसे शुरू किया था एक पहाड़ी गाँव में और खत्म कर रहा हूँ एक बड़े, भीड़-भड़क्केवाले नगर में। पहली पंक्ति तड़के ही लिखी थी, मगर अब आधी रात होनेवाली है और शहर में भी सब बत्तियाँ बुझती जा रही हैं।
मैं लंबे सफर से लौटा हूँ। गाँव के छोर पर मैं घोड़े से नीचे उतर गया हूँ। उसकी लगाम थामकर मैं उसे लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी गली में से ले गया हूँ। अब तो यही ठीक होगा कि घोड़े का जीन उतारा जाए, उसकी गर्दन थपथपाई जाए और उसे चरने के लिए खुले मैदान में छोड़ दिया जाए।
मेरे ख्याल में मैं खुद तो आग के पास बैठकर सिगरेट जलाऊँगा और उसके कश लगाऊँगा। कहते हैं कि खुद अल्लाह भी अपनी कोई नसीहत भरी कहानी सुनाने के बाद तंबाकूनोशी करता है। वह सिगरेट जलाता है, कश खींचता है और सोच में डूब जाता है।
आइए हम भी सोंचे। हर मंजिल खुशी बनकर नहीं आती। हर किताब कामयाब नहीं रहती। नई सुबह होने पर नई किताब शुरू करूँगा, नए सफर पर निकलूँगा।
फिलहाल तो मैं सफर करता-करता थक गया हूँ। अपना बड़ा नमदे का लबादा ओढ़कर मैं सोने जा रहा हूँ। शुभरात्रि, भले लोगो! सलाम-दुआ से ही मैंने इसे शुरू किया था और सलाम-दुआ के साथ ही खत्म करता हूँ। वासलाम, वाकलाम, अमीन!