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कविता

एक मुसलमान लड़के की डायरी का एक आधा-अधूरा पृष्ठ

प्रदीप जिलवाने


(यदि पाठक मेरे इस झूठ को सच मान सके तो
मुझे यह डायरी दंगे में जले हुए एक घर से मिली थी।)

मैं, मैं नहीं
मैं, एक नाम हूँ
मेरा नाम मुझसे चिपका हुआ है

इसी नाम से
जिसे चमकता हुआ देखने की ख्वाहिश में
मेरे अब्बू को चश्मा चढ़ गया
और मेरी अम्मी की आँखों में
उतर आया अवसाद का मोतियाबिंद

यही नाम
जो मुझमें आकांक्षाएँ पैदा करता रहा बरसों तक
और मुझे हताशा के भीषण दौरों से
बाहर लाता रहा वक्त-बेवक्त

यही नाम जिसने मुझे पहचान दी
घर, मोहल्ला, स्कूल और शहर तक

यही नाम मेरा यानी मेरी पहली मुहब्बत
इन दिनों मेरे ख्वाबों में आकर मुझे चिढ़ाने लगा है
और दिन के उजाले में खौफ भर देता है मुझमें

एक झिझक के साथ खुलता है
इन दिनों मुझमें मेरा नाम
और अंदेशों के बीच झूलता है लोगों के बीच
और सड़कों पर विचरता है किसी बम की तरह

मैं अपने इसी भरे-पूरे नाम से
छुटकारा पाना चाहता हूँ
(क्या कि मैं दुनिया को नामहीन कर पाता ?)
शेक्सपियर तुम गलत थे,
'नाम में बहुत कुछ रखा है'

 


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