अवार भाषा के 'रीग' शब्द के दो भिन्न अर्थ हैं - 'उम्र' और 'घर'। मेरे लिए ये दोनों अर्थ एक में ही घुल-मिल जाते हैं। उम्र - घर। उम्र हो गई तो अपना घर भी होना चाहिए। अगर अवार भाषा की इस कहावत का उच्चारण किया जाए (हमारे यहाँ एक ऐसी कहावत है) तो ऐसा शब्द-खिलवाड़ सामने आता है जिसका अनुवाद संभव नहीं - 'रीग - रीग', उम्र - घर।
तो ऐसा माना जा सकता है कि दागिस्तान बहुत पहले ही बालिग हो चुका है और इसलिए इस दुनिया में उसका यथोचित और ठोस स्थान है।
मैं अक्सर अम्माँ से पूछा करता था -
'दागिस्तान कहाँ है?'
'तुम्हारे पालने में,' मेरी समझदार अम्माँ जवाब देतीं।
'तुम्हारा दागिस्तान कहाँ है?' आंदी गाँव के एक व्यक्ति से किसी ने पूछा।
उसने चकराते हुए अपने इर्द-गिर्द देखा।
यह टीला - दागिस्तान है, यह घास - दागिस्तान है, यह नदी - दागिस्तान है, पर्वत पर पड़ी हुई बर्फ - दागिस्तान है, सिर के ऊपर बादल, क्या यह दागिस्तान नहीं है? तब सिर के ऊपर सूरज भी क्या दागिस्तान नहीं है?
'मेरा दागिस्तान हर जगह है!' आंदी गाँव के वासी ने उत्तर दिया।
गृह-युद्ध के बाद, 1921 में हमारे गाँव तबाहहाल थे, लोग भूखे रहते थे और नहीं जानते थे कि आगे क्या होगा। उसी वक्त तो पहाड़ी लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल लेनिन से मिलने गया। लेनिन के कमरे में जाकर दागिस्तान के ये प्रतिनिधि कुछ भी कहे बिना दुनिया का एक बहुत बड़ा नक्शा खोलने लगे।
'यह नक्शा आप किसलिए लाए हैं?' लेनिन ने हैरान होते हुए पूछा।
'आपको अनेक जनगण की बहुत-सी चिंताएँ हैं, आप यह याद नहीं रख सकते कि कौन लोग कहाँ रहते हैं। इसलिए हम आपको यह दिखाना चाहते हैं कि दागिस्तान कहाँ पर है।'
लेकिन हमारे पहाड़ी लोग चाहे कितना ही क्यों न खोजते रहे, अपने क्षेत्र को ढूँढ़ नहीं पाए, बड़े नक्शे के गड़बड़-झाले में फँस गए, अपने छोटे से देश को खो बैठे। तब लेनिन ने किसी तरह की खोज-तलाश किए बिना फौरन ही पहाड़ी लोगों को वह दिखा दिया जो वह ढूँढ़ रहे थे।
'यही तो है आपका दागिस्तान,' और वह चहकते हुए हँस पड़े।
'इसे कहते हैं दिमाग,' हमारे पहाड़ियों ने सोचा और लेनिन को बताया कि उनके पास आने के पहले वे जन-कमिसार के यहाँ गए थे और वह लगातार उनसे यही बताने को कहता रहा था कि दागिस्तान कहाँ है। जन-कमिसार के सहकर्मी तरह-तरह के अनुमान-अटकलें लगाते रहे थे। एक ने कहा कि वह कहीं जार्जिया में है, दूसरे ने कहा कि तुर्किस्तान में। एक सहकर्मी ने तो यह दावा भी किया कि वह दागिस्तान में ही बसमाचियों से लोहा लेता रहा है।
लेनिन तो और भी ज्यादा जोर से हँस पड़े -
'कहाँ, कहाँ, तुर्किस्तान में? बहुत खूब। यह तो कमाल ही हो गया।'
लेनिन ने उसी वक्त टेलीफोन का रिसीवर हाथ में लिया और उस जन-कमिसार को यह स्पष्ट किया कि तुर्किस्तान कहाँ है, दागिस्तान कहाँ है, बसमाची और म्युरीद कहाँ हैं।
क्रेमलिन में लेनिन के कमरे में अभी तक काकेशिया का बहुत बड़ा नक्शा लटका हुआ है।
अब दागिस्तान - एक जनतंत्र है। वह छोटा है या बड़ा, इस चीज का कोई महत्व नहीं। वह वैसा ही है, जैसा होना चाहिए। हमारे सोवियत देश में तो शायद अब कोई यह नहीं कहेगा कि दागिस्तान तुर्किस्तान में है, लेकिन दूर-दराज के किसी देश में तो मुझे स्पष्टीकरण देनेवाली इस तरह की बातचीत अवश्य करनी पड़ती है -
'आप कहाँ से हमारे यहाँ आए हैं?'
'दागिस्तान से।'
'दागिस्तान... दागिस्तान... यह कहाँ है?'
'काकेशिया में।'
'पूरब में या पश्चिम में?'
'कास्पी सागर के तट पर।'
'अच्छा, बाकू?'
'अजी बाकू नहीं। कुछ उत्तर की तरफ।'
'आपकी सीमाएँ किससे मिलती हैं?'
'रूस, जार्जिया और आजरबाइजान से...'
'लेकिन क्या वहाँ पर चेर्केस नहीं रहते? हमने तो सोचा था कि वहाँ चेर्केस रहते हैं।'
'चेर्केस तो चेर्केसिया में रहते हैं और दागिस्तान में दागिस्तानी रहते हैं। तोलस्तोय... हाजी-मुरात... तोलस्तोय की यह रचना पढ़ी है? बेस्तूजेव-मारलीन्स्की ...या फिर लेर्मोंतोव : 'दागिस्तानी घाटी की जलती दोपहरी में' पढ़ी है?'
'क्या यह वहीं है जहाँ एलब्रूस है?'
'एलब्रूस तो काबारदीनो-बल्कारिया में है, कज्बेक - जार्जिया में और हमारे यहाँ ...गुनीब गाँव है, त्सादा गाँव है।'
दूर-दराज के किसी देश में मुझे कभी-कभी यह सब कहना पड़ता है। यह तो सभी जानते हैं कि पुत्र-वधू को इशारे से कोई बात समझाने के लिए बिल्ली को डाँटा-डपटा जाता है। शायद हमारे देश में भी कोई ऐसा छिछला आदमी मिल जाए जो अभी तक ऐसा सोचता है कि दागिस्तान में चेर्केस रहते हैं या शायद ऐसा कहना और ज्यादा सही होगा कि वह कुछ भी न सोचता हो।
मुझे बहुत दूर के देशों में जाने का मौका मिला है, मैंने विभिन्न सम्मेलनों, कांग्रेसों और परिगोष्ठियों में भाग लिया है।
विभिन्न महाद्वीपों - एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका और आस्ट्रेलिया से लोग जमा होते हैं। वहाँ, जहाँ सभी चीजों की महाद्वीपों के स्तर पर चर्चा की जाती है, मैं तो वहाँ भी यही कहता हूँ कि मैं दागिस्तान से आया हूँ।
'आप एशिया या यूरोप के प्रतिनिधि हैं, यह स्पष्ट करने की कृपा कीजिए,' मुझसे अनुरोध किया जाता है। 'आपका दागिस्तान किस महाद्वीप में है?'
'मेरा एक पाँव एशिया में है और दूसरा यूरोप में। कभी-कभी ऐसा होता है कि दो मर्द एक साथ घोड़े की गर्दन पर अपने हाथ रख देते हैं - एक मर्द एक तरफ से और दूसरा दूसरी तरफ से। ठीक इसी तरह से दागिस्तान के पहाड़ों की चोटी पर दो महाद्वीपों ने एक साथ अपने हाथ रख दिए हैं। मेरी धरती पर उनके हाथ मिल गए हैं और मुझे इस बात की बड़ी खुशी है।'
परिंदे और नदियाँ, पहाड़ी बकरे और लोमड़ियाँ तथा बाकी सब जानवर भी एक साथ यूरोप और एशिया के हैं। मुझे ऐसा लगता है कि उन्होंने यूरोप और एशिया की एकता की समिति बनाई है। अपनी कविताओं के साथ मैं बड़ी खुशी से ऐसी समिति का सदस्य बनने को तैयार हूँ।
फिर भी कुछ लोग मानो मेरा मुँह चिढ़ाते हुए जान-बूझकर ही मुझसे यह कहते हैं - 'तुमसे कोई कहे भी तो क्या - तुम एशियाई ठहरे।' या इसके विपरीत, एशिया के किसी दूरस्थ स्थान पर मुझसे ऐसा कहा जाता है - 'तुमसे कोई दूसरी उम्मीद ही क्या की जा सकती है - तुम यूरोपीय आदमी जो हो।' मैं न तो पहले और न दूसरे लोगों की बात का खंडन करता हूँ। दोनों ही सही हैं।
जब कभी मैं किसी औरत के प्रति अपनी प्रेम-भावना प्रकट करने लगता हूँ तो वह संदेहपूर्वक अपना सिर हिलाकर कहती है -
'ओह, यह चालाकी और मक्कारी से भरा पूरब!'
जब कभी मेरे यहाँ दागिस्तानी मेहमान आते हैं, मेरी गतिविधि में उन्हें कोई अजीब बात दिखाई देती है तो वे अपने सिर हिलाते हैं और कह उठते हैं -
'ओह, ये यूरोपीय अंदाज!'
हाँ, दागिस्तान पूरब को प्यार करता है, मगर पश्चिम भी उसके लिए पराया नहीं है। वह तो उस पेड़ की तरह है जिसकी जड़ें एक साथ दो महाद्वीपों की धरती में हैं।
क्यूबा में मैंने फिडेल कास्त्रो को दागिस्तानी लबादा भेंट किया।
'इसमें बटन क्यों नहीं है?' फिडेल कास्त्रो ने हैरान होते हुए पूछा।
'इसलिए कि जरूरत होने पर इसे झटपट कंधे से उतार फेंका जाए और हाथ में तलवार ली जा सके।'
'असली छापेमारों की पोशाक है,' छापेमार फिडेल कास्त्रो ने सहमति प्रकट की।
दूसरे देशों के साथ दागिस्तान की तुलना करने में कोई तुक नहीं है। वह जैसा है, वैसा ही अच्छा है। उसकी छत से पानी नहीं चूता है, उसकी दीवारें टेढ़ी-मेढ़ी नहीं हैं, दरवाजे चरमर नहीं करते हैं, खिड़कियों से तेज हवा नहीं आती है। पहाड़ों में जगह तंग है, मगर दिल बड़े हैं।
'तुम्हारा कहना है कि मेरी धरती छोटी और तुम्हारी बड़ी है?' आंडी गाँव के एक वासी ने किसी आदमी से चुनौती के अंदाज में कहा। 'तो आओ, इस चीज का मुकाबला करें कि हम किसकी धरती का जल्दी से पैदल चक्कर लगाते हैं, तुम मेरी धरती का और मैं तुम्हारी का? मैं भी देखूँगा कि कैसे तुम हमारी पहाड़ी चोटियों पर चढ़ोगे, चौपायों की तरह हाथों-पैरों के बल कैसे चट्टानों पर ऊपर जाओगे, हमारे खड्डों में कैसे रेंगोगे, हमारी खोहो-खाइयों में कैसे कलाबाजियाँ करोगे।'
मैं दागिस्तान की सबसे ऊँची पहाड़ी चोटी पर चढ़ जाता हूँ और वहाँ से सभी ओर नजर दौड़ाता हूँ। दूर-दूर तक रास्ते दिखाई देते हैं, दूर-दूर तक रोशनियाँ झिलमिलाती नजर आती हैं और अधिक दूरी पर कहीं घंटियाँ बजती सुनाई देती हैं, धरती नीले-नीले धुएँ की चादर में लिपटी हुई है। अपने पैरों के नीचे अपनी मातृभूमि को अनुभव करते हुए मेरे लिए दुनिया पर नजर दौड़ाना अच्छा है।
आदमी जब इस दुनिया में जन्म लेता है तो वह अपनी मातृभूमि चुनता नहीं - जो भी मिल जाती है, सो मिल जाती है। मुझसे भी किसी ने यह नहीं पूछा कि मैं दागिस्तानी बनना चाहता हूँ या नहीं। बहुत संभव है कि अगर मैं दुनिया के किसी दूसरे भाग में जनम लेता, मेरे दूसरे ही माता-पिता होते तो मेरे लिए उस धरती से ज्यादा प्यारी और कोई धरती न होती, जहाँ मैं पैदा हुआ होता। मुझसे इसके बारे में पूछा नहीं गया। लेकिन अगर अब पूछा जाता है तो मैं क्या उत्तर दूँ?
दूरी पर मुझे पंदूरा बजता सुनाई दे रहा है। धुन जानी-पहचानी है, शब्द भी जाने-पहचाने हैं।
नद-नाले तो सदा तड़पते, सागर से मिल जाएँ
नद-नालों के बिना चैन पर, सागर भी कब पाएँ?
दो हाथों में दिल को ले लें, ऐसा तो है मुमकिन
किंतु समा लें दिल में दुनिया, यह तो है नामुमकिन।
और देश दुनिया के अच्छे, सभी देश हैं सुंदर
प्यारा दागिस्तान मुझे है, वह ही अंकित दिल पर।
पंदूरा बजाकर गानेवाला नहीं, बल्कि अपने मुँह से खुद दागिस्तान यह कहता है -
मुझे देखकर जो भी नाक चढ़ाए
अच्छा है, वह वापस घर जाए।
हमारे यहाँ एक पुरानी परंपरा है - जाड़े की लंबी रातों में नौजवान लोग किसी बड़े घर में जमा होते हैं और तरह-तरह के खेल खेलते हैं। मिसाल के तौर पर किसी लड़के को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है। उसके गिर्द एक लड़की चक्कर काटती हुई कुछ गाती है। लड़के को भी गाने में ही उसके सवालों का जवाब देना होता है। इसके बाद लड़की को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है और लड़का उसके गिर्द चक्कर काटता हुआ गाता है। ये गाने पूरी तरह से रूसी भाषा में प्रचलित चतुष्पदियों जैसे तो नहीं होते, लेकिन उनमें कुछ समानता जरूर होती है। इस तरह जवान लोगों के बीच एक प्रकार का वार्तालाप होने लगता है। तीखे-चुभते शब्द के जवाब में और भी अधिक तीखा-चुभता शब्द कहा जाना चाहिए, नपे-तुले सवाल का नपा-तुला जवाब होना चाहिए। इस प्रतियोगिता में जो भी जीत जाता है, उसे सींग से बनाया गया जाम शराब से भरकर दिया जाता है।
इस तरह के खेल हमारे घर की पहली मंजिल पर भी खेले जाते थे। मैं तब छोटा था, खेलों में हिस्सा नहीं लेता था, इन बेंतबाजी को सिर्फ सुना करता था। मुझे याद है कि चूल्हे के करीब फेनिल सुरा और घर में बनाई गई तली हुई सासेजें रखी रहती थीं। कमरे के बीचोंबीच तीन टाँगोंवाली कुर्सी रख दी जाती थी। लड़के और लड़कियाँ बारी-बारी से इस कुर्सी पर बैठते रहते थे। गानों के वार्तालापों में उनके बीच तरह-तरह की बातें होती रहती थीं, किंतु वार्तालाप का अंतिम भाग दागिस्तान को समर्पित होता था। ऐसे प्रश्नों का कमरे में उपस्थित सभी लोग मिलकर जवाब देते थे।
'तुम कहाँ हो, दागिस्तान?'
'ऊँची चट्टान पर, कोइसू नदी के तट पर।'
'तुम क्या कर रहे हो, दागिस्तान?'
'मूँछों पर ताव दे रहा हूँ।'
'तुम कहाँ हो दागिस्तान?'
'घाटी में मुझको ढूँढ़ो।'
'तुम क्या कर रहे हो, दागिस्तान?'
'जौ की बालों का पूला बनकर खड़ा हूँ।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'मैं - खंजर पर चढ़ाया गया गोश्त हूँ।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'खंजर, जो अपने फल पर गोश्त को चढ़ाए है।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'नदी से पानी पीनेवाला हिरन।'
'तुम कौन हो, दागिस्तान?'
'हिरन को पानी पिलानेवाली नदी।'
'तुम कैसे हो, दागिस्तान?'
'मैं छोटा-सा हूँ, मुट्ठी में समा सकता हूँ।'
'तुम किधर चल दिए, दागिस्तान?'
'अपने लिए कुछ बड़ा ढूँढ़ने को।'
तो युवक-युवतियाँ एक-दूसरे को जवाब देते हुए ऐसे गाते थे। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरी सारी किताबों में इसी तरह के सवाल-जवाब हैं। सिर्फ कुर्सी पर बैठी हुई वह लड़की नहीं है जिसके गिर्द मैं चक्कर काटता रहता। खुद ही सवाल करता हूँ, खुद ही जवाब देता हूँ। अगर कोई बढ़िया जवाब सूझ जाता है तो कोई भी मुझे शराब से भरा हुआ सींग पेश नहीं करता है।
'तुम कहाँ हो, दागिस्तान?'
वहाँ जहाँ मेरे सभी पहाड़ी लोग हैं।'
'तुम्हारे पहाड़ी लोग कहाँ हैं?'
'ओह, अब वे कहाँ नहीं हैं!'
'दुनिया - बहुत बड़ी तश्तरी है और तुम छोटा-सा चम्मच। क्या इतनी बड़ी तश्तरी के लिए वह बहुत ही छोटा नहीं है?'
मेरी अम्माँ कहा करती थीं कि छोटा मुँह भी बड़ा शब्द कह सकता है।
मेरे पिता जी कहा करते थे कि छोटा-सा पेड़ भी बड़े बाग की शोभा बढ़ाता है।
शामिल भी कहा करता था कि छोटी-सी गोली बड़े जहाज में छेद कर देती है। अपनी कविताओं में तुमने तो खुद ही यह कहा है कि छोटे से दिल में विराट संसार और बहुत बड़ा प्यार समा जाता है।
'जाम उठाते हुए तुम हमेशा यह क्यों कहते हो - 'नेकी के लिए!'
'क्योंकि खुद नेकी की तलाश में हूँ।'
'तुम पत्थरों और चट्टानों पर क्यों घर बनाते हो?'
'इसलिए कि नर्म धरती पर तरस आता है। वहाँ मैं थोड़ा-सा अनाज उगाता हूँ। मैं तो समतल छतों पर भी अनाज उगाता हूँ। चट्टानों पर मिट्टी ले जाता हूँ और वहाँ अपना अनाज उगाता हूँ। ऐसा ही है मेरा अनाज।'