'यह बताओ कि क्या अमरीका हमारे देश जितना ही बड़ा है? वहाँ ज्यादा आबादी है या हमारे यहाँ?' 1959 में अमरीका से लौटने पर मेरी माँ ने मुझसे पूछा।
शोर किए बिन बहलाए जो मन अपना
बिना आँसुओं के ही जो रो सकता है,
आह भरे बिन जो चुपके से मर जाए
ऐसा व्यक्ति पहाड़ी, ऐसी जनता है।
रात के सन्नाटे और सो रहे गाँव में चाहे पानी बरस रहा हो या अच्छा मौसम हो, खिड़की पर हल्की-सी दस्तक होती है।
'अरे, यहाँ कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'तुम कौन हो?'
'अगर यह पूछ रहे हो कि 'कौन' हूँ तो घर पर ही रहो। तुमसे कोई फायदा नहीं होगा।'
फिर दूसरी खिड़की पर दस्तक होती है - ठक, ठक।
'अरे, इस घर में क्या कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'कहाँ जाने को? किसलिए?'
'अगर 'कहाँ' और 'किसलिए' पूछते हो तो घर पर ही रहो। तुमसे कोई फायदा नहीं होगा।'
तीसरी खिड़की पर दस्तक होती है।
'अरे, इस घर में क्या कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो!'
'अभी। मैं तैयार हूँ।'
तो यह मर्द है, यह पहाड़ी आदमी है! और ये दोनों चल देते हैं। फिर ठक, ठक। 'यहाँ कोई मर्द है? घोड़े पर जीन कसो।' और अब वे दो नहीं, तीन नहीं, दस नहीं, बल्कि सैकड़ों और हजारों हैं। उकाब के पास उकाब उड़ आया, एक व्यक्ति के पीछे दूसरा व्यक्ति चल दिया। ऐसे दागिस्तान के जनगण, इसकी जनता ने रूप ग्रहण किया। घाटी से आनेवाली हवाएँ पालने झुलाती हैं, पहाड़ी नदियाँ लोरियाँ गाती हैं -
तुम कहाँ गए थे, डिंगीर-डांगारचू?
वन में गया था डिंगीर-डांगारचू।
बेटे का जन्म हुआ - उसके तकिये के नीचे खंजर रख दिया गया। खंजर पर यह लिखा था - 'तुम्हारे पिता का ऐसा हाथ था कि जिसमें तुम नहीं काँपते थे। क्या तुम्हारा हाथ भी ऐसा ही होगा?'
बिटिया का जन्म हुआ, पालने के ऊपर एक घंटी लटका दी गई जिस पर लिखा था - 'सात भाइयों की बहन होगी।'
एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर फैलाई गई रस्सियों के सहारे घाटी में पालने झूलते हैं। बेटे बड़े हो रहे हैं, बेटियाँ भी बड़ी हो रही हैं। दागिस्तान के जनगण बड़े हो गए, उनकी मूँछें भी बड़ी हो गईं, अब उन पर ताव दिया जा सकता है।
दागिस्तान में सोलह लाख 72 हजार लोग हो गए। दूर-दूर के पहाड़ों तक उनकी ख्याति फैल गई, इस ख्याति से कभी न तृप्त होनेवाले विजेताओं के मुँह में पानी भर आया और उन्होंने दागिस्तान की तरफ अपने लालची हाथ बढ़ाए।
दागिस्तानियों ने कहा - 'हमें हमारे घरों में माता-पिताओं और पत्नियों के साथ चैन से रहने दो। हमारी संख्या तो यों ही कम है।'
लेकिन दुश्मनों ने जवाब दिया - 'अगर तुम्हारी संख्या कम है तो हम तुम्हारे दो-दो टुकड़े कर देंगे और तुम्हारी संख्या दुगुनी हो जाएगी।'
लड़ाइयाँ शुरू हो गईं।
दागिस्तान में ज्वालाएँ भड़कने लगीं, दागिस्तान धू-धू करके जलने लगा। पहाड़ी ढालों, घाटियों-दर्रों में और चट्टानों पर दागिस्तान के सबसे अच्छे एक लाख सपूत, एकदम जवान, मजबूत और दिलेर बेटे खेत रहे।
लेकिन दस लाख दागिस्तानी जिंदा बच गए। हवाएँ पहले की तरह ही पालनों को झुलाती रहीं, लोरियाँ गाई जाती रहीं। एक लाख नए दागिस्तानी बेटे बड़े हो गए। उन्हें खेत रहे वीरों के नाम दे दिए गए। तभी दागिस्तान पर हमला कर दिया गया।
बहुत बड़ी लड़ाई हुई, लड़ाई का बहुत बड़ा शोर-गुल रहा। कटे हुए सिर पत्थरों की भाँति दर्रों-घाटियों में लुढ़कते रहे। दागिस्तान के सबसे अच्छे एक लाख सपूत शहीद हो गए। एक लाख सैनिक, एक लाख हलवाहे, एक लाख वर, एक लाख पिता।
किंतु दस लाख जिंदा रह गए। पालने झूलते रहे, गाने गाए जाते रहे, जवान सूरमा अपनी प्रेयसियों को भगाकर ले जाते रहे, एक ही लबादे के नीचे तन गर्माते और आलिंगन करते रहे, दागिस्तान की वंश-वृद्धि करते रहे। एक लाख नए बेटे-बेटियों का जन्म हुआ, एक लाख हँसिए, खंजर, पंदूरे और खंजड़ियाँ सामने आ गईं।
तब एक नया युद्ध आरंभ हुआ। घाटियों में और पहाड़ी रास्तों पर तोपें दनदना उठीं। पहाड़ी वनों की ढालों पर कुल्हाड़े चलने की आवाजें होने लगीं। संगीनें चमक उठीं, गोलियाँ ठाँय-ठाँय करने लगीं।
तब उराल से, रे डेन्यूब तक
चौड़े-चौड़े नदी-पाट तक
बढ़ती जाती थीं सेनाएँ
संगीनों की चमक दिखाएँ।
श्वेत टोपियाँ लहराती थीं
हरी घास-सी बल खाती थीं।
घोड़े जिनके धूल उड़ाते
वे उलान भी बढ़ते जाते
सजी-धजी वे, सटी-सटी वे
कदम मिला चलतीं सेनाएँ,
झंडे उनके आगे फहरें
और ढोलची ढोल बजाएँ।
तोपें उनकी शोर मचाएँ
वे दनदन गोले बरसाएँ।
वहाँ पलीते भी जलते हैं
धाँय-धाँय गोले चलते हैं
पके हुए बालोंवाला वह
जनरल करता है अगुआई
उसकी आँखों में शोले हैं
आग नजर में पड़े दिखाई।
बढ़ती जाती हैं सेनाएँ
जैसे तेज, प्रबल धाराएँ,
वे मेघों-सी उमड़ रही हैं
घोर घटा-सी घुमड़ रही हैं,
वे पूरब को बढ़ती जाएँ
वे मंसूबे बुरे बनाएँ।
कज्बेक दुख, चिंता में डूबा
दुश्मन को देखे, घबराए,
गिनती करना चाहे इनकी
किंतु नहीं इनको गिन पाए।
हाँ, उनकी गिनती करना कठिन था। हमारे गीतों में यह गाया जाता है कि हमारे एक व्यक्ति को एक सौ शत्रुओं का सामना करना पड़ा। 'एक हाथ कट जाता तो वह दूसरे हाथ से लड़ता, सिर कट जाता तो उसका धड़ लड़ता रहता,' बूढ़े उस युद्ध के बारे में ऐसा बताते थे। मरे हुए घोड़ों से रास्ते और दर्रे रोक दिए जाते थे, सैनिक ऊँची-ऊँची चट्टानों से संगीनों पर कूदते थे। हमसे यह कहा जाता था कि खून बहाना बंद करो। विरोध करने में काई तुक नहीं। कहाँ जाओगे तुम? तुम्हारे पंख नहीं हैं कि आसमान में उड़ जाओ। तुम्हारे ऐसे नाखून नहीं हैं कि धरती को खोदकर उसमें समा जाओ।
लेकिन शामिल जवाब देता था।
'मेरी तलवार-पंख है। हमारे खंजर और तीर - हमारे नाखून हैं।'
पचीस साल तक पहाड़ी लोग शामिल के नेतृत्व में लड़ते रहे। इन सालों के दौरान न केवल दागिस्तान का बाहरी रंग-रूप बदला, बल्कि स्थानों और नदियों के नाम भी बदल गए। अवार-कोइसू का नाम कारा-कोइसू यानी काली नदी हो गया। 'घायल चट्टानें' और 'मौत का दर्रा' प्रकट हो गया, वालेरिक नदी विख्यात हो गई, शामिल की पगडंडी, शामिल का मार्ग और शामिल का नाच लोगों की स्मृति में अंकित होकर रह गए।
गुनीब पर्वत उस युद्ध के अपार दुख का चरमबिंदु बनकर रह गया है। इमाम ने इसी की चोटी पर आखिरी बार इबादत की। इबादत के वक्त ऊपर उठे हुए हाथ में गोली लग गई। शामिल सिहरा नहीं और उसने अपनी नमाज जारी रखी। इमाम शामिल के घुटनों और उस शिला पर, जिस पर वह खड़ा था, खून गिरता रहा। घायल इमाम ने अपनी नमाज पूरी की। जब वह उठकर खड़ा हुआ तो लोगों ने कहा -
'तुम घायल हो, इमाम।'
'यह घाव तो मामूली-सा है। ठीक हो जाएगा।' शामिल ने मुट्ठी भर घास तोड़ी और हाथ से बह रहा खून पोंछने लगा। 'दागिस्तान लहूलुहान हो रहा है। इस घाव का इलाज कहीं ज्यादा मुश्किल है।'
इसी कठिन घड़ी में इमाम ने सहायता के लिए अपने उन वीरों का आह्वान किया जो बहुत पहले ही कब्रों में जा चुके थे। उसने उनसे अपील की जिन्होंने अखूल्गो में अपने प्राण दिए, उनसे जो खूँजह में अपने प्राण दे चुके थे, उनसे जो साल्टी गाँव के करीब पथरीली धरती पर मृत पड़े रहे, उनसे जो गेर्गोबिल में दफन हैं, उनसे जो दार्गो में वीरगति को प्राप्त हुए।
इमाम शामिल ने अपने ही गाँववासी और अग्रज, पहले इमाम काजी-मुहम्मद, लंगड़े हाजी-मुरात, अलीबेकीलाव, अखबेर्दीलाव और अनेक अन्य वीरों को याद किया। इनमें से कोई सिर के बिना, कोई हाथ के बिना और कोई गोलियों से छलनी हुए दिल के साथ दागिस्तान की धरती में दफन पड़ा है। युद्ध का मतलब है मौत। दागिस्तान के एक लाख सबसे अच्छे सपूत।
लेकिन शामिल विशाल रूस की धरती से गुजरते हुए लगातार यही दोहराता रहा -
'दागिस्तान छोटा है, हमारे लोगों की संख्या कम है। काश, मेरे पास एक हजार सूरमा और होते।'
वेर्खनी (ऊपरवाले) गुनीब में वह पत्थर अभी तक सुरखित है जिस पर लिखा है - 'प्रिंस बर्यातीन्स्की ने इसी पर बैठकर बंदी शामिल से बातचीत की थी।'
'तुम्हारी सारी कोशिशें, तुम्हारा सारा संघर्ष बेकार रहा,' प्रिंस बर्यातीन्स्की ने अपने कैदी से कहा।
'नहीं, बेकार नहीं रहा,' शामिल ने जवाब दिया। 'लोगों के दिलों में उसकी याद बनी रहेगी। मेरे संघर्ष ने अनेक जानी दुश्मनों को भाई बना दिया, आपस में शत्रुता रखनेवाले अनेक गाँवों में मित्रता पैदा कर दी, एक-दूसरे से बैर रखने और 'मेरे लोग' 'मेरी जाति' की रट लगानेवाले बहुत-से जनगण को एकजुट कर दिया। मैंने मातृभूमि, अखंड दागिस्तान की भावना पैदा कर दी और उसे अपने वंशजों के लिए छोड़े जा रहा हूँ। क्या यह कम है?'
मैंने पिता जी से पूछा -
'किसलिए दुश्मनों ने हमारे देश पर हमला किया, खून बहाया, द्वेष और घृणा के बीज बोए? किसलिए उन्हें दागिस्तान की जरूरत थी जो प्यार-मुहब्बत से अनजान भेड़िए के बच्चे जैसा है?'
'मैं तुम्हें एक बहुत ही अमीर आदमी का किस्सा सुनाता हूँ। हाँ, वह आदमी बेहद अमीर था। एक टीले पर चढ़कर उसने जब सभी तरफ नजर दौड़ाई तो देखा कि पहाड़ के दामन से सागर-तट तक सारी घाटी में उसी के भेड़ों के रेवड़ चर रहे हैं। उसके मवेशियों और तेज घोड़ों के झुंडों का भी कोई अंत नहीं था। हवा में उसी के मेमनों की आवाजें गूँज रही थीं। इस अमीर आदमी का दिल खुशी से नाच उठा कि सारी जमीन उसकी है और उस जमीन पर सारे पशु भी उसी के हैं।
'लेकिन इस अमीर आदमी को तभी अचानक जमीन का एक ऐसा टुकड़ा दिखाई दिया जो खाली पड़ा था और जिस पर उसके पशुओं का झुंड नहीं था। यह देखकर उसका दिल ऐसे टीस उठा मानो किसी ने उसके दिल में गहरा घाव कर दिया हो। अमीर आदमी गुस्से में आकर भयानक आवाज में चिल्ला उठा - 'अरे! वह बालों से वंचित होनेवाली खाल के समान जमीन का टुकड़ा खाली क्यों पड़ा है? क्या उसे भरने के लिए मेरे यहाँ काफी भेड़ें नहीं हैं? मेरे रेवड़ उधर भेज दो, मेरे पशुओं-घोड़ों के झुंड उधर हाँक दो!'
मगर मेरे पिता जी को खुद शामिल के बारे में बातें सुनाना कहीं ज्यादा पसंद था।
मिसाल के तौर पर यह कि शामिल ने एक दिलेर डाकू पर कैसे जीत हासिल की।
एक बार अपने मुरीदों के साथ इमाम एक गाँव में गया। गाँव के बुजुर्ग-मुखिया लोग उसके साथ कटुता से मिले। वे बोले -
'हम जंग से तंग आ गए हैं। हम अमन-चैन से रहना चाहते हैं। अगर तुम न होते तो हमने बहुत पहले ही जार से सुलह कर ली होती।'
'अरे तुम लोग, जो कभी पहाड़ी होते थे! तुम लोग क्या दागिस्तान की रोटी खाना और उसके दुश्मनों की खिदमत करना चाहते हो? क्या मैंने तुम्हारे अमन-चैन में खलल डाला है? मैं तो उसकी रक्षा कर रहा हूँ।'
'इमाम, हम भी दागिस्तानी हैं, लेकिन देख रहे हैं कि इस लड़ाई से दागिस्तान का कोई भला नहीं हो रहा और आगे भी नहीं होगा। केवल हठधर्मी से तो कुछ हासिल नहीं हो सकेगा।'
'तुम दागिस्तानी हो? रहने की जगह की दृष्टि से तो तुम दागिस्तानी हो, लेकिन तुम्हारे दिल खरगोशों जैसे हैं। तुम्हें अपने चूल्हों में उस वक्त कोयले हिलाना अच्छा लगता है, जब दागिस्तान खून से लथपथ हो रहा है। अपने गाँव का फाटक खोल दो वरना हम अपनी तलवारों से उसे खोल लेंगे!'
गाँव के बुजुर्ग-मुखिया बहुत देर तक इमाम से बातचीत करते रहे और आखिर उन्होंने उसे अपने गाँव में आने की अनुमति देने और एक सम्मानित मेहमान के रूप में उसका स्वागत-सत्कार करने का निर्णय किया। इसके बदले में शामिल ने उन्हें वचन दिया कि वह इस गाँव के एक भी व्यक्ति की हत्या नहीं करेगा और पुराने मनमुटावों-झगड़ों को अपनी जबान पर नहीं लाएगा। इमाम शामिल अपने एक वफादार दोस्त के पहाड़ी घर में ठहरा और गाँव के बुजुर्ग-मुखियों के साथ बातचीत करते हुए उसने यहाँ कुछ दिन बिताए।
इसी वक्त इस गाँव और इसके आस-पास के क्षेत्रों में दो मीटर से भी अधिक लंबे कद का एक महाबली, एक भयानक डाकू लूट-मार करता था। वह किसी भेद-भाव के बिना सभी को लूटता था, लोगों से उनका अनाज, ढोर-डंगर और घोड़े छीन लेता था, गाँववालों की हत्याएँ करता था और उन्हें डराता-धमकाता था। उसके लिए कुछ भी पावन-पवित्र नहीं था। अल्लाह, जार और इमाम - इन शब्दों का उसके लिए कोई अर्थ नहीं था।
चुनांचे गाँव के बुजुर्ग-मुखियों ने शामिल से अनुरोध किया -
'इमाम, किसी तरह हमें इस लुटेरे से मुक्ति दिला दो।'
'किस तरह मुक्ति दिलाऊँ मैं तुम्हें इससे?'
'इसे मार डालो, इमाम, मार डालो। इसने तो खुद बहुत-से लोगों की हत्या की है।'
'मैंने तो तुम्हारी पंचायत को इस गाँव में एक भी व्यक्ति की हत्या न करने का वचन दिया है। मुझे अपना वचन निभाना चाहिए।'
'इमाम, हमें इस दुष्ट से मुक्ति दिलाने का कोई उपाय सोच निकालिए!'
कुछ दिनों के बाद शामिल के मुरीदों ने इस लुटेरे को घेर लिया, पकड़कर उसकी मुश्कें बाँध दीं और गाँव में लाकर तहखाने में बंद कर दिया। इस अपराधी को इसके भयानक अपराधों के अनुरूप दंड देने के लिए एक खास अदालत-दीवान-बैठी। यह तय किया गया कि इस शैतान को फिर से तहखाने में बिठा दिया गया और दरवाजे पर ताला लगा दिया गया।
कुछ दिन बीत गए। एक रात को जब पौ फटनेवाली थी और शामिल गहरी नींद सो रहा था, उसके कमरे में शोर और खट-पट सुनाई दी। इमाम उछलकर बिस्तर से उठा और उसने अपने इर्द-गिर्द नजर डाली। उसने देखा कि कुल्हाड़े से दरवाजे के छोटे-छोटे टुकड़े करके एक पर्वत जैसा, जंगली दरिंदे और राक्षस जैसा व्यक्ति चीखता-चिल्लाता तथा कोसता हुआ उसकी तरफ बढ़ रहा है। इमाम समझ गया कि यह लुटेरा किसी तरह तहखाने का ताला तोड़कर निकलने में सफल हो गया है और अब बदला लेने को यहाँ आया है।
दाँत पीसता हुआ यह दानव बढ़ता आ रहा था। उसके एक हाथ में बहुत बड़ा खंजर और दूसरे में कुल्हाड़ा था। इमाम ने भी अपना खंजर ले लिया। उसने मुरीदों को पुकारा, मगर इस बदमाश ने उन्हें तो पहले ही दूसरी दुनिया में पहुँचा दिया था। गाँव के लोग सो रहे थे। किसी ने भी इमाम की पुकार नहीं सुनी।
शामिल पीछे हटते हुए शत्रु पर वार करने का अचछा मौका ढूँढ़ रहा था। अंधा बदमाश इधर-उधर उछल-कूद रहा था और कुल्हाड़ा चला रहा था। कमरे में जो कुछ भी था, उसने वह सब तोड़-फोड़ डाला।
'कहाँ हो तुम सूरमा, जिसकी किताबों में चर्चा की जाती है?' वह लंबा-तड़ंगा लुटेरा चिल्ला रहा था। 'कहाँ छिपे हुए हो तुम? इधर आओ, मेरे हाथ बाँधो, मुझे पकड़ो, मेरी आँखें निकालो!'
'मैं यहाँ हूँ!' इमाम ने जोर से चिल्लाकर जवाब दिया और उसी क्षण उछलकर एक तरफ को हट गया। कुल्हाड़ा उसी जगह पर दीवार में गहरा जा घुसा, जहाँ एक क्षण पहले शामिल खड़ा था। तब इमाम इसी क्षण का लाभ उठाते हुए अपने दुश्मन पर झपटा। लुटेरा ज्यादा ताकतवर और प्रचंड था। वह शामिल को इधर-उधर फेंकने और उछालने-पटकने लगा और उसे कई बार घायल करने में भी सफल हो गया। लेकिन शामिल की चुस्ती-फुरती ने हर बार ही उसकी मदद की और वह घातक रूप से घायल होने से बच गया। यह संघर्ष कोई दो घंटे तक चलता रहा। आखिर उस बदमाश ने शामिल को पकड़ लिया, सिर के ऊपर पठा लिया, उसे जोर से फर्श पर पटकना और फिर उसका सिर काट डालना चाहा। किंतु हवा में ऊपर उठा हुआ शामिल फुरती से काम लेते हुए इस लुटेरे के सिर पर कई बार खंजर से वार करने में सफल हो गया। बदमाश डाकू अचानक झुक गया, उसका शरीर ढीला पड़ गया, लड़खड़ाया और वह ईंटों की मीनार की तरह नीचे गिर गया। उसके हाथों से खंजर छूट गया। सुबह होने पर लोगों ने उन दोनों को खून के डबरे में पड़ा पाया। शामिल के बदन पर नौ घाव लगे थे और उसे एक महीने तक इसी गाँव में इलाज करवाना पड़ा।
शक्तिशाली बाहरी दुश्मन के विरुद्ध शामिल का संघर्ष इस भिड़ंत के समान ही था। बाहर से आनेवाला दुश्मन उसके लिए अपरिचित पहाड़ों में अंधे जैसी हरकतें करता था। शामिल बड़ी फुरती से उसके हमलों से बच निकलता था और फिर अचानक कभी बगल तथा कभी पीछे से उस पर हमला करता था।
हर पहाड़ी आदमी के दिल में संभवतः शामिल का अपना एक बिंब है। मैं भी उसे अपने ही ढंग से देखता हूँ।
वह अभी जवान है। अखूल्गो नामक समतल चट्टान पर घुटनों के बल होकर वह अवार जाति के क्षेत्र में बहनेवाली कोइसू नदी की लहर में अभी-अभी धोए गए अपने हाथ ऊपर उठाता है। उसके चेर्केस्का की आस्तीनें ऊपर चढ़ी हुई हैं। उसके होंठ कोई शब्द फुसफुसा रहे हैं - कुछ लोगों का कहना है कि इबादत के वक्त जब वह 'अल्लाह' शब्द फुसफुसाता था तो लोगों को 'आजादी' सुनाई देता था और जब 'आजादी' फुसफसाता था तो 'अल्लाह' सुनाई देता था।
वह बूढ़ा हो गया है। कास्पी सागर के तट पर वह हमेशा के लिए दागिस्तान से विदा लेता है। वह गोरे जार का बंदी है। एक पत्थर पर चढ़कर उसने कास्पी की फेन उगलती लहरों पर नजर डाली। उसके होंठ 'अल्लाह' और 'आजादी' की जगह 'विदा' फुसफसा रहे हैं। लोगों का कहना है कि इस क्षण उसके गालों पर नमी की बूँदें दिखाई दी थीं। लेकिन शामिल तो कभी भी रोता नहीं था। शायद ये बूँदें सागर की फुहारें थीं।
किंतु सबसे अधिक प्रखर रूप में मैं पिता जी द्वारा सुनाए गए किस्से के अनुरूप ही उसकी कल्पना करता हूँ - एक तंग पहाड़ी घर में गुस्से से पागल हुए डाकू के साथ अकेले ही हाथापाई करते, लंबे और खूनी संघर्ष में उलझे हुए।
हाजी-मुरात के साथ शामिल की कभी तो शांति से निभी और कभी उनके बीच झगड़ा होता रहा। इन दोनों के बारे में बहुत-सी दंत-कथाएँ और किस्से-कहानियाँ हैं।
हाजी-मुरात को अपना नायब बनाकर शामिल ने उसे हाइदाक और ताबासारान गाँवों में भेजा ताकि वहाँ के लोगों को अपने पक्ष में कर ले या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि उन्हें युद्ध में खींच ले। उसे आशा थी कि हाजी-मुरात लोगों को समझा-बुझाकर अपने पक्ष में करेगा, लेकिन नए नायब ने ऐसा करने के बजाय हाइदाक तथा ताबासारान में कोड़े और बंदूक से काम लिया। अगर कोई कानून के बारे में मुँह से शब्द निकालने की हिम्मत करता तो हाजी-मुरात उसे घूँसा दिखाकर कहता - 'यह है तुम्हारा कानून। मैं खूँजह का रहनेवाला हाजी-मुरात हूँ। तुम्हारे लिए मैं ही सबसे बड़ा कानून हूँ।'
हाजी-मुरात की क्रूरता की खबरें शामिल तक पहुँचीं। उसने हरकारे को भेजकर नायब को अपने पास बुलवाया। हाजी-मुरात लूट का काफी बड़ा माल लिए हुए लौटा। उसका फौजी दस्ता मवेशियों का झुंड, भेड़ों के रेवड़ और घोड़ों के झुंड अपने आगे-आगे हाँकता ला रहा था। खुद हाजी-मुरात अगवा की गई एक हसीना को अपने घोड़े पर बिठाए ला रहा था।
'अससलामालेकुम, इमाम!' हाजी-मुरात ने घोड़े से नीचे उतरते हुए अपने सेनापति का अभिवादन किया।
'वालेकुम सलाम, नायब। खुश आमदीद क्या खुशखबरी लाए हो?'
'खाली हाथ नहीं लौटा हूँ। चाँदी लाया हूँ, भेड़ों के रेवड़, घोड़े और कालीन भी। ताबासारान में बढ़िया कालीन बुने जाते हैं।'
'क्या कोई हसीना नहीं लाए?'
'हसीना भी लाया हूँ। और वह भी बहुत गजब की! तुम्हारे लिए ही लाया हूँ, इमाम।'
दोनों योद्धा कुछ देर तक एक-दूसरे को घूरते रहे। इसके बाद शामिल ने कहा -
'तुम यह बताओ कि क्या मैं इस हसीना को अपने साथ लेकर लड़ने जाऊँगा? मुझे भेड़ों की नहीं, लोगों की जरूरत है। मुझे घोड़े नहीं, घुड़सवार चाहिए। तुम उनके पशु भगा लाए। ऐसा करके तुमने उनके दिलों को ठेस लगाई है और उन्हें हमारे खिलाफ कर दिया है। उन्हें हमारे सैनिक बनकर वीरगति को प्राप्त और घायल होनेवाले हमारे सैनिकों की जगह लेनी चाहिए थी। अब कौन उनकी जगह लेगा? अगर हाइदाक और ताबासारान के लोग हमारे साथ होते तो क्या हमारे साथ वैसी ही बीत सकती थी, जैसी साल्टी और गेर्गेबिल गाँव के साथ बीती? क्या यह अच्छी बात है कि कुछ दागिस्तानी दूसरे दागिस्तानियों को लूटें?'
'लेकिन इमाम, वे लोग तो दूसरी जबान समझते ही नहीं!'
'क्या तुमने खुद उनकी जबान समझने की कोशिश की? अगर समझ जाते तो कोड़े और बंदूक से काम न लेते। क्या मेरे नायब लुटेरे हैं?'
'इमाम, मैं खूँजह का रहनेवाला हाजी-मुरात हूँ!'
'मैं भी गीमरी का रहनेवाला शामिल हूँ। केबेद-मुहम्मद तेलेतल और हुसैन चिरकेई का रहनेवाला है। इससे क्या फर्क पड़ता है? अवार, हिंदाल्याल, कुमिक, लेज्गीन, लाक और तुम्हारे द्वारा लूटे गए हाइदाक तथा ताबासारान के लोग - हम सब एक ही दागिस्तान के बेटे हैं। हमें एक-दूसरे को समझना चाहिए। हम तो एक ही हाथ की उँगलियाँ हैं। घूँसा बनने के लिए सभी उँगलियों को बड़ी। मजबूती से एक-दूसरी के साथ जुड़ जाना चाहिए। बहादुरी के लिए तुम्हारा शुक्रिया। बहादुरी के लिए तुम किसी भी इनाम के हकदार हो। पगड़ी तुम्हारे सिर की शोभा बढ़ा रही है। लेकिन इस बार तुमने जो कुछ किया है, मैं इसका समर्थन नहीं कर सकता।'
'जब ऐसी ही पगड़ियाँ बाँधे दूसरे लोगों ने लूट मचाई तब उनसे तो तुमने कुछ नहीं कहा, इमाम। लेकिन अब सभी का दोष मेरे मत्थे जा रहा है।'
'मैं जानता हूँ तुम किसकी तरफ इशारा कर रहे हो, हाजी-मुरात, तुम्हारा अभिप्राय अखबेर्दीलाव से है, मेरे बेटे काजी-मुहम्मद या खुद मुझसे है। लेकिन अखबेर्दीलाव ने मोज्दोक में हमारे दुश्मन को लूटा था। मैंने उन खानों की दौलत लूटी थी जो हमारा साथ नहीं देना चाहते थे और जिन्होंने हमारा विरोध तक करने की कोशिश की। नहीं, हाजी-मुरात। नायब बनने के लिए दिलेर दिल और तेज खंजर ही काफी नहीं। इसके लिए अच्छा दिमाग भी होना चाहिए।'
शामिल और हाजी-मुरात के बीच इस तरह की बहसें अक्सर होती रहती थीं। अफवाहों के कारण ये झगड़े बढ़ते और अधिक उग्र रूप लेते गए और आखिर द्वेषपूर्ण शत्रुता ने उन्हें अलग कर दिया। हाजी-मुरात शामिल को छोड़कर शत्रु-पक्ष में चला गया और उसका सिर काट दिया गया। उसका शरीर नूखा में दफन है। उसके शरीर का यह बँटवारा भी बड़ा अर्थपूर्ण है - उसका सिर दुश्मन के पास चला गया और दिल दागिस्तान में रह गया। कैसा भाग्य था उसका।