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कविता

उजाले की तलाश

उमेश चौहान


दौड़े जा रहे हैं वे
अँधेरे में डूबी गुफा के भीतर
उस मुहाने की तलाश में
जहाँ मिलने की उम्मीद है उन्हें
सुनहरी रश्मियों का एक प्रकाश-पुंज
सबके हिस्से में आनी है जिसकी बराबर-बराबर रोशनी
जिससे ज्योतिष्मान करना चाहते हैं वे
अपने-अपने भविष्य को
अंधकार भरे वर्तमान से पीछा छुड़ाकर,
किंतु पसीने से लथपथ उनके शरीर
शिथिल पड़ते जा रहे हैं और
उजाले से भरे मुहाने का
अभी तक कुछ अता-पता भी नहीं।

चारों तरफ फैले हुए कथित उजाले में
उन्हें घेर रही काली परछाइयों की अगुवाई करने वाले
आततायी सिंहों का सीना चीर
उनका रक्त पी जाने के उद्देएश्य से ही
घुसे थे वे इस काली गुफा में,
किंतु कहीं छिपकर बच निकले हैं वे सिंह
बाहर उजाले के जंगल में
फिर से अपना आतंक फैलाने के लिए और
घुप्प अँधेरे में फँसे वे दौड़े जा रहे हैं दिग्भ्रमित
अपनी उम्मीदों के उजाले तक पहुँचने का रास्ता तलाशते
पकड़े हुए हाथ एक दूसरे का मजबूती से
रास्ते में भटक जाने से बचने के लिए।

अँधेरे में भागते-हाँफते हुए
जारी हैं उनकी संघर्ष की चेष्टाएँ
पर सिंह तो बाहर के उजाले में निर्द्वंद्व घूम रहे हैं!
उस उजाले में एकजुट हो
सिंहों से भिड़ने का साहस नहीं है शायद उनमें,
अब अँधेरे में भटकते हुए ही
क्रांति का परचम लहराने की
आदत सी पड़ चुकी है उन्हें।

वे नहीं जानते कि अँधेरे में
न तो लाल रंग से जागता है कोई उन्माद
न ही सफेद रंग से उपजती है
हथियार डाल देने और समर्पण करने जैसी कोई भी आकांक्षा,
अँधेरे में तो बस दिखता है सभी कुछ काला-काला
केवल भयभीत करता और मिथ्या शक्ति का भ्रम जगाता,
वे अँधेरे में हुंकारते हुए भूल चुके हैं अब
शत्रु और मित्र का विभेद भी,
उजाले में घूमते आतंकियों ने
घोषित कर दिया है उन्हें
अँधेरों के आतंकी,
प्रजातंत्र के इस दौर में वे
एक समानांतर कहानी बनते जा रहे हैं,
अँधेरों में गुमनाम होते जा रहे लोगों की कहानी।

 


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