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कविता

झंडा
उमेश चौहान


एक के हाथ में धर्म की ध्वजा है
एक के हाथ में जाति का झंडा है
और अनेक वे भी हैं जो
किसी न किसी वर्ग, भाषा, बोली या संगठन के
झंडाबरदार बने घूम रहे हैं
इन्हीं के बीच एक वह भी है
जिसके पास फिलहाल कोई भी झंडा नहीं है
ऐसे ही एक आदमी की आँखों में आज आँसू हैं
और ऐसे ही किसी एक की पीठ पर आज
बाकी सभी का डंडा है

मुझे पता नहीं कि यह प्रजातंत्र का कोई नया फलसफा है
या फिर एक गरीब देश में
नोटों के बदले वोट बिकने की स्थिति होने की लाचारी
लगता तो यही है कि
यहाँ इस तरह की लाचारी का होना भी
इन्हीं सब झंडाबरदारों का एक नया हथकंडा है

मित्रो, अब इस देश को
इन लोगों से बचाने का
मुझे तो सूझता नहीं कहीं कोई फंडा है
अब तो इन्हीं के हाथों में उस मुरगी की गरदन है
जिसके पेट में पल रहा
हमारी खुशहाली का प्रतीक सोने का अंडा है।

 


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