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कविता

हाँडी
उद्भ्रांत


चूल्हे पर चढ़ी है हाँडी
हाँडी में पक रहा है एक चावल
खदबद
खदबद
खेत हैं उजड़े
उनमें दरारें जहाँ बड़ी-बड़ी
कुदरत का काला रंग
करता सूखी मिट्टी का श्रृंगार
कुछ ऐसे कि बनता है
एक विराट मानचित्र काली हाँडी का
जिसमें से निकल-निकल भागती है भूख
अपने हाँडीनुमा घरों को छोड़कर
और बिकने के लिए एक मुट्ठी चावल पर
उसे जनमने वाली माता योनि द्वारा
हाँडी का चावल
पक रहा है
खदबद खदबद
और उस एक चावल की सुगंध
उस काले आदिवासी को
कर रही नियंत्रित
खाने को पेड़ की छाल
और आम की सड़ी गुठली
और अपने ही जाए बच्चे को करने
खुले आम नीलाम!
उड़ीसा के चूल्हे पर
रक्खी काली हाँडी से
उड़ी साहबजादी
अपने रंगीन पंखों के साथ
काल को बदलते हुए
चौबीसों घंटे और
बारहों महीने के
अन्यायी काल
याकि अकाल में;
और आसमान में उड़ते
हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज
लेते हैं शक्ल
चीलों और गिद्धों की जबकि -
मजे से पक रहा है
एक किनकी चावल का
इस विराट हाँडी में
भूख के सुलगते चूल्हे पर
खदबद
खदबद

 


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