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कविता

तवायफ - 1

उद्भ्रांत


सृष्टि के आदि से ही
कायम है उसकी सत्ता
वह दुनिया के
सबसे पुराने
व्यवसाय में है
उसे फक्र है
कि दुनिया के
तमाम मर्दों के लिए
और तमाम
सती-साध्वियों के लिए भी
जंगल, समाज और सत्ता से स्वीकृत
बेहतर समझे जाते
विकल्प की जननी है वह!
अपनी उपस्थिति से
बचा लेती है
कामोद्दीप्त समाज को
आग में जलकर
राख होने से!
उसकी दो अंगुल जगह में
समूची सृष्टि की पवित्रता,
घंटे, घड़ियाल,
मृदंग और मँजीरे,
मंदिर और मसजिद
और गिरजाघर,
संपूर्ण धार्मिकता,
मजहबी तहजीब,
अपने-अपने
खुदा और ईश्वर
और गुरु और क्राइस्ट!
उस विवेक और आनंद के
शून्य में
समाया है
समूचा ब्रह्मांड
जिसे
जब चाहती है वह
गंगाजल से धोकर
कर देती है
फिर से पवित्र
वह पुण्य कार्य करती है
मगर पापी कहलाती है!
पाषाण युग के
बार्टर सिस्टम को
तन की कसौटी पर कसते
आज के
भूमंडलीकरण के युग के
एकमात्र महाराजा -
बाजार की
एकमात्र महारानी!
खरीदने को तत्पर
महाराजा के मुकुट से लेकर
नौकरशाही का जूता तक!

 


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