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कविता

निर्जन वन में

मिथिलेश कुमार राय


यहाँ की लड़कियाँ फूल तोड़कर
भगवती को अर्पित कर देती हैं
वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भँवरे का मंडराना वे नहीं समझती हैं

किस्से की कोई किताब नहीं है इनके पास
ये अपनी माँ के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं

इनकी दृष्टि पृथ्वी से कभी नहीं हटती
ये नहीं जानतीं कि उड़ती हुई चिड़ियाँ कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है

सिद्दकी चौक पर शुक्रवार को जो हाट लगती है वहाँ तक
यहाँ से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पाएँगी किसी राहगीर को
सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैं
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता


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